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बिजनेस पत्रकारिता: धंधे की खबरों के साथ

                               सेबी का गठन संसद में पारित कानून के तहत हुआ है और शेयर और प्रतिभूति बाजार से जुड़े मसलों के नियमन के लिए यह संस्था उत्तरदाई है। सेबी पर शेयर मार्केट के नियमन के साथ ही निवेशकों के हितों की रक्षा का भी दायित्व है। इसी दायित्व के तहत सेबी ने 10 फरवरी 2010 को निवेशकों को सतर्क करने के लिए कुछ हिदायतें जारी की थी। सेबी ने कहा है कि हाल के दिनों में निवेश सलाह देने वाली वेबसाइटों की बाढ़ आई है। सभी का मानना है कि वेब, टीवी या प्रिंट माध्यमों के जरिए दिए जा रहे इंट्राडे, शार्ट टर्म, लॉन्ग टर्म ट्रेडिंग टिप्स के हिसाब से सौदा करना खतरनाक हो सकता है। सेबी ने यह बातें 2010 में की थी और आप अंदाजा लगाइए कि 2015 में जिओ के लॉन्च के बाद किस प्रकार से इसकी बाढ़ आ गई होगी इस समय। यानी कि 2010 के मुकाबले कहीं ज्यादा इस समय सतर्क रहने की जरूरत है। इस प्रकार बाजार की अफवाहों या अपुष्ट या अविश्वसनीय श्रोतों से आए समाचारों के आधार पर निवेश ना करें, ना ही भविष्यफल के आधार पर निवेश के फैसले करें। सेबी की राय है कि निवेशकों को सतर्कता बरतनी चाहिए और समझना चाहिए कि अखबारों या च
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विज्ञापन: डिस्काउंट के साथ प्राइस टैग

           उदारीकरण के बाद या यूं कहें हमेशा से ही विज्ञापन का गहरा असर रहा है। बस आपके पास दर्शक होने चाहिए विज्ञापन तो चल कर आने लगता है। और शायद यही कारण है कि ज्यादा दर्शक होने के कारण समाज में ज्यादा झूठ फैलाने का काम भी मुख्यधारा की मीडिया कर रही है।                          " मैं खबर और विचार पाठकों को बेचता हूं और अपने पाठकों को विज्ञापनदाताओं को बेचता हूं।"                      पीजी पवार (मराठी समाचार पत्र समूह सकाल के प्रबंध निदेशक)।                       यह उन सवालों का जवाब है कि मीडिया अगर इंडस्ट्री है तो यहां खरीदार कौन है? बेचने वाला कौन और बेचा क्या जा रहा हैम परंपरागत तरीके से कहा जा सकता है कि मीडिया हाउस विक्रेता यानी बेचने वाले हैं, पाठक और दर्शक खरीदने वाले हैं और इस बाजार में जो चीज बेची जा रही है वह अखबार, पत्रिका, टीवी कार्यक्रम या इंटरनेट के कंटेंट यानी समाचार, विचार, फीचर, तस्वीरें, कार्टून आदि। लेकिन इस खरीद बिक्री में मीडिया इंडस्ट्री के कुल राजस्व के सिर्फ 10 से 20% का लेन-देन हो रहा हो तो भी क्या पाठक और दर्शक के नाते कोई कह सकता है

मंदी की मार और मीडिया के लिए मौका

                                     क्या यह सिर्फ संयोग है कि राजनीतिक पेड न्यूज और पैकेज पत्रकारिता का सबसे विकराल रूप देश ने 2014 में देखा। 2019 का साल 2014 से कहीं ज्यादा खतरनाक साबित हुआ है लेकिन अभी इसके आंकड़े उपलब्ध नहीं हो पाए हैं। शायद 2019 पैकेज पत्रकारिता में सारे रिकॉर्ड तोड़ने वाला साल बन गया है। देश की राजनीति के लिहाज से यह साल महत्वपूर्ण है क्योंकि इस साल एनडीए सरकार ने अपने 5 साल पूरे किए और इसके बाद फिर से लोकसभा चुनाव में बहुमत हासिल कर पाई है। भारत की सामरिक और विदेश नीति में यह एक नए दौर की शुरुआत भी है क्योंकि विदेश नीति इससे पहले अमेरिका के पक्ष में इस कदर झुकी हुई कभी नहीं थी। आर्थिक नीति के क्षेत्र में माना गया है कि बहुमत की  सरकार के लिए उदारीकरण के रास्ते पर तेज दौड़ने में अब कोई बाधा नहीं होगी। या राजनीतिक उथल-पुथल एक तरीके से बाजार वादी आर्थिक नीतियों की भी जीत है। 2009 से 2019 तक विज्ञापन का कारोबार :                           भारतीय मीडिया और विज्ञापन उद्योग के लिए 2009 बुरा साल साबित हुआ, इसलिए नहीं कि विज्ञापनों से आमदानी पिछले साल के मुकाबले

पेड न्यूज़:कागज की कश्ती में

              पेड़ न्यूज़: कागज की कश्ती में वर्ष 2009, 2014 व 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में जिस तरह मीडिया कर्मी और अखबारों और चैनलों के विज्ञापन विभाग के लोग रेट लिस्ट लेकर पार्टियों और उम्मीदवारों के पास पहुंच गए उसने नेताओं को चौंकाया। ऐसा करना मीडिया और नेताओं के अब तक चले आ रहे रिश्तो की बुनियाद पर हमले की तरह था। 2009 में जो चलन प्रारंभ हुआ था पेड न्यूज़ का वह 2019 में आते आते अपनी चरम सीमा तक पहुंच रहा है। नेता अब तक मीडिया और मीडिया कर्मियों के हितों का ध्यान रखते थे और बदले में मीडिया में कवरेज करते हुए इन बातों और रिश्तो का ध्यान रखा जाता था या लेन-देन का रिश्ता तो था लेकिन इसमें सीधे तौर पर रुपए कम ही गिने जाते थे।                 " कानपुर में स्वर्गीय नरेंद्र मोहन ( दैनिक जागरण के मालिक) के नाम पर पुल का नामांकरण उस समय हुआ जब मैं उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री था। उनके मल्टीप्लेक्स को जमीन हमारे समय में दी गई । जागरण का जो स्कूल चलता है और उनका जहां दफ्तर है उनकी जमीनें हमारे समय में उन्हें दी गई लेकिन यह सब मैंने किसी अपेक्षा में नहीं अपना मि

खबरों की लगती बोली

                  खबरों की लगती बोली                  चुनाव में मीडिया प्रबंधन कोई आज की बात नहीं है। चुनाव में माहौल बनाने के उपकरण के तौर पर मीडिया में अनुकूल खबरें छपवाना और विरोधी के खिलाफ छपवाने की कोशिशें पुरानी परिघटना हैं। कई दशकों से नेता अपने साथ चुनावी दौरों पर पत्रकारों को ले जाते रहे हैं, बड़े दल और मजबूत कहे जाने वाले उम्मीदवार चुनाव के दौरान मीडिया सेंटर चलाते रहे हैं। लेकिन अखबार और न्यूज चैनल खुलेआम कवरेज रेट कार्ड लेकर नेताओं और पार्टियों के पास जाने लगे यह 2009 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव की विशिष्ट परिघटना थी। ऐसा भी पहली बार बड़े पैमाने पर हुआ कि पब्लिक रिलेशन एजेंसियों ने चुनाव के दौरान चैनलों और अखबारों में कवरेज खरीदने का काम अपने हाथों में ले लिया। 2019 के लोकसभा चुनाव आते-आते यह और भी ज्यादा बड़े पैमाने पर होने लगा है। टेलीविजन और अखबारों के विज्ञापन विभाग के लोग नेताओं के पास गए और उनके साथ कवरेज के लिए सौदे तय कर आए।                      कई बार एक ही खबर या तस्वीर दो अलग-अलग अखबारों में अलग-अलग पत्रकार के नाम से छपी तो कई बार एक अखबार के एक ही पन्ने पर