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Showing posts from February, 2018

हीरे का डर?

हीरे की तमन्ना लिए लोग ना जाने कितना चिंतन कर डालते होंगे क्योंकि हीरे की कुछ पहचान ही ऐसी है। कहते हैं कि हीरा अर्श से फर्श पर फेंकने में भी देरी नहीं करता। यह बात भले ही असहज लगे पर इतिहास के पन्नों में हीरा सबसे खतरनाक खलनायक रहा है। कल तक नीरव मोदी और मेहुल चोकसी हीरे का पर्याय हुआ करते थे परंतु आज उसी हीरे ने दोनों को कोयले के खान में झोंक दिया है। ऐश्वर्या और समृद्धि के लिए विख्यात हीरा एक पारदर्शी रत्न है। यह है तो सबसे कठोर प्राकृतिक पदार्थ परंतु नाजुक दिलों को चुटकी में लूट लेता है। ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में बात की जाए तो इसी हीरे के अनेक दीवाने हुए और उसी दीवानगी में सब कुछ लुटा गए। विश्व का नूर माना जाने वाला कोहिनूर लंदन से लेकर लखनऊ की छोटी छोटी गलियों में विख्यात है।शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो जो कोहिनूर को पाना ना चाहेगा। परंतु कोहिनूर का इतिहास इसे बेनूरियत रूपी कुर्ता पहना देता है। दरसल कोहिनूर जहां कहीं भी गया वहां के लोगों का दिल तो अवश्य लूटा परंतु साथ में दिल वालों को भी सदा के लिए लूट लिया। कोहिनूर ने जितना ज्यादा सफर किया उतना ही ज्यादा दुनिया को तबाह भी क

मिथक: एक देश एक चुनाव

भारत की सबसे बड़ी खूबसूरती यह है कि तमाम विवादों और कलह के बाद भी लोकतांत्रिक प्रणाली में लोगों का भरोसा बरकरार है। इसी के इर्द गिर्द घूमते हुए देश उस समय एक नई बहस की ओर मुड़ गया जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराने की बात कही। देश में फिलहाल अलग-अलग और लगातार चुनाव होते रहते हैं। इसमें पंचायतों के चुनाव भी शामिल हैं। अब जबकि चुनाव होते ही रहते हैं तो जाहिर है प्रत्येक चुनाव के लिए आचार संहिता लागू होगी जिससे लोगों का आम जनजीवन प्रभावित होगा। यही कारण है कि आचार संहिता रूपी पहलू को आर्थिक दृष्टि से जोड़कर चुनाव के खर्च को कम करने के लिए एक चुनाव की बात पर बल दिया जा रहा है। इसके अतिरिक्त कुछ महानुभाव इतिहास का भी गुणगान करते हैं। बताते चलें कि 1952 से लेकर 1967 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होते आए परंतु उसके पश्चात कुछ राज्यों में कांग्रेस के अतिरिक्त अन्य पार्टियों की सरकारों का गठन हुआ और उनको सशक्त केंद्र के द्वारा गिराने का काम किया गया। यही कारण था कि 1967 के बाद एक साथ चुनाव संभव नहीं हो पाए। इसके अतिरिक्त स्वत

मालदीव संकट और भारत।

शासन प्रणाली के सभी रूप अपने आप में एक बेहतर व्यवस्था को बनाने की बात करते हैं। परंतु लोकतंत्र शासन व्यवस्था का एक ऐसा उदाहरण है जो सभी में बेहतर है इसका  कारण शायद इस व्यवस्था में जनता को दिए गए ज्यादा से ज्यादा अधिकार व प्रदान की गई सकारात्मक स्वतंत्रता है। बेहतर होने के बावजूद दुनिया के कई देशों में आज भी लोकतंत्र स्थापित नहीं हो पाया है। इन देशों में खासकर मुस्लिम बहुल जनसंख्या वाले देश आते हैं और उनमें भी खाड़ी देश सबसे ऊपर। इसी का एक उदाहरण छोटे से द्वीप समूह से निर्मित मालदीव का है जो लोकतंत्र के अपने नवजात रूप में पनपना प्रारंभ ही हुआ था कि यहां के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन द्वारा लगाए गए आपातकाल ने नवजात को पनपने में अड़ंगा लगा दिया।                               दरसल अब्दुल्ला यमीन द्वारा 5 फरवरी 2018 को 15 दिन के लिए मालदीव में आपातकाल की घोषणा कर दी गई। इससे मालदीव का चला आ रहा राजनीतिक संकट और गहरा गया। भारतीय विदेश मंत्रालय ने भी अपने नागरिकों को मालदीव की अनावश्यक यात्रा टालने का सुझाव दिया और मालदीव में भारतीय प्रवासियों के लिए भी अलर्ट जारी किया है। यदि बात की जा

कासगंज का सच?

अक्सर लोगों द्वार यह सुनने को मिलता है कि अमेरिका का लोकतंत्र सबसे पुराना तो है लेकिन भारत का लोकतंत्रीय स्वरूप नया होते हुए भी दुनिया को एक मिसाल पेश कर रहा है। यहां इतनी विविधता के होते हुए भी लोग लोकतंत्र को और अधिक मजबूत बनाते जा रहे हैं। आपस में कदम से कदम मिलाकर यहां के लोग भारत को ना केवल जमीन पर बल्कि अंतरिक्ष तक विश्व के सामने एक बेहतरी के साथ खड़ा कर रहे हैं । परंतु कुछ उपद्रवी लोगों द्वारा समाज में एक दूसरे के प्रति नफरत पैदा कर देश को पीछे धकेलने का काम किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश राज्य के कासगंज में भी कुछ उपद्रवियों द्वारा गणतंत्र दिवस के अवसर पर माहौल को खराब करने की कोशिश की गई और वह थोड़े बहुत कामयाब भी हुए। ये उपद्रवी केवल एक धर्म या जाति में नहीं हैं बल्कि प्रत्येक जगह कुछ मात्रा में मिल जाते हैं जो कि पूरे  समाज को नकारात्मक दिशा की ओर मोड़ देते हैं।                                   गणतंत्र दिवस के मौके पर उत्तर प्रदेश के कासगंज में कुछ ऐसा ही देखने को मिला जहां  तिरंगे की यात्रा को लेकर दो समुदायों में भिड़ंत हो गई। और इस भिड़ंत ने काफी उग्र रूप ले लिया इसमें