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मंदी की मार और मीडिया के लिए मौका

       
                            
क्या यह सिर्फ संयोग है कि राजनीतिक पेड न्यूज और पैकेज पत्रकारिता का सबसे विकराल रूप देश ने 2014 में देखा। 2019 का साल 2014 से कहीं ज्यादा खतरनाक साबित हुआ है लेकिन अभी इसके आंकड़े उपलब्ध नहीं हो पाए हैं। शायद 2019 पैकेज पत्रकारिता में सारे रिकॉर्ड तोड़ने वाला साल बन गया है। देश की राजनीति के लिहाज से यह साल महत्वपूर्ण है क्योंकि इस साल एनडीए सरकार ने अपने 5 साल पूरे किए और इसके बाद फिर से लोकसभा चुनाव में बहुमत हासिल कर पाई है। भारत की सामरिक और विदेश नीति में यह एक नए दौर की शुरुआत भी है क्योंकि विदेश नीति इससे पहले अमेरिका के पक्ष में इस कदर झुकी हुई कभी नहीं थी। आर्थिक नीति के क्षेत्र में माना गया है कि बहुमत की  सरकार के लिए उदारीकरण के रास्ते पर तेज दौड़ने में अब कोई बाधा नहीं होगी। या राजनीतिक उथल-पुथल एक तरीके से बाजार वादी आर्थिक नीतियों की भी जीत है।
2009 से 2019 तक विज्ञापन का कारोबार:
                          भारतीय मीडिया और विज्ञापन उद्योग के लिए 2009 बुरा साल साबित हुआ, इसलिए नहीं कि विज्ञापनों से आमदानी पिछले साल के मुकाबले कम हो गई। मीडिया और विज्ञापन जगत में 2009 को बुरा साल इसलिए कहा गया क्योंकि इस साल विज्ञापनों का कारवां कम तेजी से बढ़ा। एडेक्स 2009 की रिपोर्ट के मुताबिक इस साल प्रिंट माध्यम के विज्ञापन सिर्फ 3 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़े। इस साल प्रिंट माध्यम के सबसे बड़े विज्ञापनदाताओं में से बैंकिंग, रिटेल, रियल स्टेट, ट्रैवल और टूरिज्म जैसे सेक्टरों का विज्ञापन बजट पिछले साल के मुकाबले घट गया।
सर्विस सेक्टर और बैंकिंग क्षेत्र के विज्ञापनों में एक और चार प्रतिशत की कमी आई। इसके बावजूद कुल विज्ञापन राजस्व में 3% बढ़ोतरी का चमत्कार इसलिए हुआ क्योंकि रोजमर्रा के व्यक्तिगत इस्तेमाल की चीजों और शिक्षा क्षेत्र का विज्ञापन खर्च क्रमश 31 और 5% बढ़ गया और ऊपर से चुनावी साल में राजनीतिक और सामाजिक विज्ञापनों की बरसात हो गई।
चुनाव से पहले सामाजिक यानी सरकारी विभागों का प्रचार करने वाले विज्ञापन आए तो लोकसभा और कई राज्यों के लिए हुए विधानसभा चुनाव में राजनीतिक विज्ञापन लोकसभा चुनाव के दौरान राजनीतिक विज्ञापनों का कुल खर्च 800 करोड़ रुपये होने का अनुमान है जिसमें से 40 से 50% प्रिंट मीडिया के हिस्से में आया। 2014 में यह विज्ञापन काफी बढ़ गया और दो हजार करोड़ को भी पार कर गया। 2019 के लोकसभा चुनाव में ऐसा माना जा रहा है कि करीब 10000 करोड़ का विज्ञापन सभी पार्टियों और नेताओं के द्वारा किया गया है।
अकेले फेसबुक पेज पर ही कई करोड़ रुपए खर्च कर दिए गए इस बार। 2019 के लोकसभा चुनाव में विज्ञापन की स्थिति में भी थोड़ा बदलाव आया। अब प्रिंट और टीवी चैनलों के साथ-साथ फेसबुक और यूट्यूब चैनलों पर भी खूब पैसा बहाया गया। जिस प्रकार से नोटबंदी और जीएसटी ने विज्ञापन का धंधा थोड़ा मंदा कर दिया था उसी प्रकार 2019 के चुनाव में उसको काफी आगे बढ़ा दिया। इस बार चुनाव में सबसे ज्यादा विज्ञापन पर खर्च करने वाली पार्टी बीजेपी बनी। इस पार्टी का कुल खर्च अन्य सभी पार्टियों के कुल खर्च से भी ज्यादा रहा।
शायद यही कारण रहा कि बीजेपी ने भारत की अधिकांश जनसंख्या तक अपनी पहुंच बनाई। इस चुनाव में खास बात यह भी रही कि मीडिया घराने सरकार के पिछले कार्यकाल पर प्रश्न करने की अपेक्षा विपक्ष पर ही ज्यादा हावी रहे। इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी के अधिकांश साक्षात्कार में कोई भी क्रॉस प्रश्न नहीं किया गया।
मीडिया की मंदी कितनी असली?
                          2008 और 2009 में मीडिया में मंदी का काफी शोर रहा, इसके बाद 2014 और फिर 2019 में भी कुछ ऐसा ही हाल देखने को मिला। इसके आधार पर मीडिया ने सरकार से पैकेज लिया, कीमतें बढ़ाई और खर्च घटाने के लिए कर्मचारियों की छटनी से लेकर पेट घटाने की रणनीति पर अमल किया। लेकिन क्या भारत में मंदी का असर मीडिया उद्योग पर सचमुच इतना गहरा था जितना कि मीडिया इंडस्ट्री कहती है। यह दौर अगर मंदी का था तो किसी भी उद्योग के लिए ऐसे समय में पहली प्राथमिकता विस्तार की योजनाओं पर पुनर्विचार करने और अक्सर उन्हें मुल्तवी करने की होती है। इस मामले में इस दौरान भारतीय मीडिया उद्योग के कई समूहों की चाल उल्टी रही।
    
                            कई मीडिया समूहों के लिए यह समय विस्तार का था। इस दौरान कई नए उत्पाद शुरू किए गए तो कई पुराने ब्रांड नए शहरों में पहुंचे। इन सबके बीच हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप ने अपने बिजनेस अखबार मिंट का कोलकाता और चेन्नई संस्करण भी शुरू कर दिया था, फाइनेंशियल क्रॉनिकल का दिल्ली में लॉन्च हुआ, लोकमत गोवा पहुंचा तो द राजस्थान पत्रिका ने भोपाल, इंदौर और जबलपुर से संस्करण शुरू किए। दैनिक हिंदुस्तान इलाहाबाद और बरेली पहुंचा। तमिल दैनिक दिनाकरन ने दिल्ली संस्करण शुरू किया तो नवभारत टाइम्स पुणे पहुंचा। खास बात यह भी रही कि 2009 के मंदी के ही दौर में दैनिक जागरण ने अपना राष्ट्रीय संस्करण शुरू किया था।
इसी प्रकार टीवी पर नए नए चैनल शुरू हो रहे थे। देश के बड़े समाचार पत्रों के मालिकों ने दिल्ली में बैठक करके मिलजुलकर अखबारों की कीमतें बढ़ाने का फैसला किया। कई मार्केट में अखबारों ने आपसी सहमति से मिल कर दाम बढ़ा दिए, इस वजह से विज्ञापनों से होने वाली आमदनी में गिरावट की भरपाई सरकुलेशन से पूरी हो गई।
  
           अब आप अंदाजा लगाइए मंदी के दौर में कैसे मीडिया घराने फले फूले? क्या यह संभव है कि ईमानदार पत्रकारिता के माध्यम से मंदी के दौर में धंधे को चमकाया जाए। आप घर पर विज्ञापन देखिए और मीडिया घराने उस विज्ञापन की जड़ों में आपको बांध कर असली पत्रकारिता से परे रखें।

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