पेड़ न्यूज़: कागज की कश्ती में
वर्ष 2009, 2014 व 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में जिस तरह मीडिया कर्मी और अखबारों और चैनलों के विज्ञापन विभाग के लोग रेट लिस्ट लेकर पार्टियों और उम्मीदवारों के पास पहुंच गए उसने नेताओं को चौंकाया। ऐसा करना मीडिया और नेताओं के अब तक चले आ रहे रिश्तो की बुनियाद पर हमले की तरह था। 2009 में जो चलन प्रारंभ हुआ था पेड न्यूज़ का वह 2019 में आते आते अपनी चरम सीमा तक पहुंच रहा है। नेता अब तक मीडिया और मीडिया कर्मियों के हितों का ध्यान रखते थे और बदले में मीडिया में कवरेज करते हुए इन बातों और रिश्तो का ध्यान रखा जाता था या लेन-देन का रिश्ता तो था लेकिन इसमें सीधे तौर पर रुपए कम ही गिने जाते थे।
" कानपुर में स्वर्गीय नरेंद्र मोहन (दैनिक जागरण के मालिक) के नाम पर पुल का नामांकरण उस समय हुआ जब मैं उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री था। उनके मल्टीप्लेक्स को जमीन हमारे समय में दी गई। जागरण का जो स्कूल चलता है और उनका जहां दफ्तर है उनकी जमीनें हमारे समय में उन्हें दी गई लेकिन यह सब मैंने किसी अपेक्षा में नहीं अपना मित्र धर्म निभाते हुए किया। फिर भी मेरे साथ ऐसा व्यवहार हुआ (खबर के लिए पैसे की मांग)। इतनी निर्दयता से चलेंगे तो कैसे चलेंगे रिश्ते।"
लालजी टंडन (लखनऊ से भाजपा के विजय लोकसभा प्रत्याशी)
"दैनिक जागरण के मालिक को हमने वोट देकर सांसद बनाया था वह बताएं वोट के बदले उन्होंने हमें कितना धन दिया था तब खबर के लिए हम धन क्यों दें।"
मोहन सिंह (देवरिया से सपा के पराजित लोकसभा प्रत्याशी)
उपरोक्त उदाहरण से आप अंदाजा लगा सकते हैं की नेताओं में पैकेज पत्रकारिता को लेकर कितनी नाराजगी है। आप पाएंगे कि यह नेता अब तक सरकार में होने या शक्तिशाली होने के कारण मीडिया को उपकृत करते रहे हैं और बदले में मीडिया से उन्हें अनुकूल कवरेज मिलता रहा है। आगे भी इस स्थिति को जारी रखना चाहते हैं लेकिन मीडिया के अंदर समीकरण कुछ इस तरह बदल गए हैं कि वह अब पैसा लिए बगैर चुनाव के दौरान पक्ष में कुछ छापने दिखाने को तैयार नहीं है और फिर मीडिया को पैसे ना दिए गए तो खिलाफ में खबरों की लाइन लग जाती है।
यह एक तरह से राजनीति और मीडिया के लंबे समय से चले आ रहे रिश्तो के टूटने का दर्द था जो इन नेताओं की जुबान से सामने आया है। जब तक मीडिया और नेताओं के रिश्ते गुपचुप निभाए जाते थे और दोनों इससे लाभान्वित होते थे तब तक कोई हंगामा ना हुआ, ना प्रेस परिषद और ना चुनाव आयोग को भी किसी तरह की कार्रवाई करने की जरूरत महसूस हुई। मीडिया और राजनीति के इन संबंधों के बारे में या तो मुमकिन है कि आम दर्शकों और पाठकों को ज्यादा जानकारी ना हो लेकिन पत्रकारिता और चुनाव के विनियामकों को इसके बारे में कुछ भी पता नहीं होगा ऐसा मानना सही नहीं होगा।
वर्ष 2009 से पहले और बाद की पत्रकारिता में फर्क यह आया है कि चुनाव प्रचार के लिए भुगतान का खेल खुलकर और बिल्कुल संस्थाबद्ध व तरीके से होने लगा। कहा जा सकता है कि मीडिया और राजनेताओं के बीच नजरों की शर्म खत्म हो गई। मीडिया के एक हिस्से में इसे लेकर आवाज भी उठने लगी जब विवाद बढ़ने लगा तो देश में प्रिंट पत्रकारिता की नियामक संस्था भारतीय प्रेस परिषद तक भी शिकायतें पहुंची। यह शिकायतें राजनीतिक दल, नेता और सामाजिक संगठनों के अलावा पत्रकारों की ओर से भी आईं। लोकसभा में भी इस बारे में सवाल पूछा गया।
अप्रैल मई 2009 में हुए लोकसभा चुनाव के बाद से ही प्रेस परिषद को पेड़ न्यूज़ और पैकेज पत्रकारिता के बारे में शिकायतें मिलने लगी थी। दिवगंत प्रभाष जोशी, कुलदीप नैयर, बीजी वर्गीज, अजीत भट्टाचार्य, हरिवंश और अच्युतानंद मिश्र ने इस परिघटना की शिकायत प्रेस परिषद से की। प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस जी.एन. रे ने आंध्र प्रदेश अकादमी और ए.पी.यू.डब्ल्यू.जे. द्वारा आयोजित एक सेमिनार में हिस्सा लिया जाए इस बारे में चर्चा हुई।
पेड न्यूज और चुनाव आयोग की भूमिका:
देश में साफ-सुथरे और निष्पक्ष तरीके से चुनाव कराने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की है। इस नाते उम्मीद की जाती है कि चुनाव आयोग चुनाव प्रक्रिया में आ रही गड़बड़ी और कायदे कानूनों के उल्लंघन या उन्हें बाईपास करने की हर कोशिश पर नजर रखेगा। लेकिन चुनाव आयोग ने अब तक ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि पेड न्यूज के चलन को रोकने के लिए उसके पास पर्याप्त कानूनी अधिकार हैं और अगर ऐसा नहीं है तो वह कानूनों में जरूरी सुधार के लिए सोच रहा है। चुनाव आयोग ने प्रस्तावित चुनाव सुधारों का जो मसौदा बनाया है उसमें एग्जिट पोल और जनमत सर्वेक्षण को लेकर तो दृष्टि साफ है लेकिन मीडिया से जुड़ी इस नई बीमारी को वह समय पर भांप नहीं पाया। चुनाव आयोग ने सरोगेट विज्ञापनों को लेकर जरूर सख्ती बरतने का प्रस्ताव रखा है। हालांकि जनप्रतिनिधि कानून 1951 की धारा 127(1) में इस बात का प्रावधान है कि कोई भी व्यक्ति ऐसा पोस्टर या पर्चा नहीं छापेगा जिसमें प्रिंटर और प्रकाशक का नाम ना छपा हो। इस धारा के सेक्शन 3 में इस बात की पुष्टि की गई है कि हाथ से छापने के अलावा किसी भी तरीके से कॉपी करने को प्रिंटिंग माना जाएगा यानी अखबारी विज्ञापनों को इस कानून के दायरे में माना जाना चाहिए।
पार्टियों और उम्मीदवारों ने इस धारा से बचने के लिए सरोगेट विज्ञापन का रास्ता अख्तियार कर लिया जिसमें अखबारों में किसी खास उम्मीदवार के पक्ष या विरोध में ऐसे विज्ञापन छापे जाते हैं जो सीधे तौर पर किसी उम्मीदवार से जुड़े नहीं होते इसलिए उम्मीदवार उनके प्रकाशन पर खर्च को अपने चुनाव खर्च में भी शामिल नहीं करते। हालांकि भारतीय दंड संहिता की धारा 171 एच में चुनाव के दौरान किसी उम्मीदवार की इजाजत लिए बगैर उसके समर्थन में विज्ञापन या प्रकाशन के लिए खर्च करने पर पाबंदी है लेकिन सेरोगेट विज्ञापन कानून के इस प्रावधान से बचने का रास्ता देता है। चुनाव आयोग ने प्रस्तावित चुनाव सुधार के ड्राफ्ट में इस बात का जिक्र किया है कि वह अखबारों को इस बात के लिए तैयार करने की कोशिश कर रहा है कि वे जनप्रतिनिधि कानून की धारा से 127-a के अनुसार ही चुनावी विज्ञापन छापें। लेकिन एक समाचार पत्र ने तो यह कह दिया है कि जनप्रतिनिधित्व कानून और भारतीय दंड संहिता के यह प्रावधान अखबारों पर लागू ही नहीं होते। अब चुनाव आयोग का कहना है कि सेरोगेट विज्ञापनों से निपटने के लिए स्पष्ट प्रावधान होने चाहिए। इसके लिए 127-a में जरूरी संशोधन किया जाना चाहिए। इसमें प्रिंट मीडिया की बात साफ तौर पर आनी चाहिए इसमें इस बात का जिक्र होना चाहिए कि चुनाव प्रक्रिया के दौरान किसी पार्टी या उम्मीदवार के पक्ष या विपक्ष में किसी भी तरह के विज्ञापन या चुनाव सामग्री में प्रकाशक का नाम सामग्री के साथ जरूर दिया जाना चाहिए। इसके लिए चुनाव आयोग ने एक नई धारा 2ए जोड़ने की सिफारिश की है।
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