Skip to main content

खबरों की लगती बोली

                  खबरों की लगती बोली
   
             चुनाव में मीडिया प्रबंधन कोई आज की बात नहीं है। चुनाव में माहौल बनाने के उपकरण के तौर पर मीडिया में अनुकूल खबरें छपवाना और विरोधी के खिलाफ छपवाने की कोशिशें पुरानी परिघटना हैं। कई दशकों से नेता अपने साथ चुनावी दौरों पर पत्रकारों को ले जाते रहे हैं, बड़े दल और मजबूत कहे जाने वाले उम्मीदवार चुनाव के दौरान मीडिया सेंटर चलाते रहे हैं। लेकिन अखबार और न्यूज चैनल खुलेआम कवरेज रेट कार्ड लेकर नेताओं और पार्टियों के पास जाने लगे यह 2009 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव की विशिष्ट परिघटना थी। ऐसा भी पहली बार बड़े पैमाने पर हुआ कि पब्लिक रिलेशन एजेंसियों ने चुनाव के दौरान चैनलों और अखबारों में कवरेज खरीदने का काम अपने हाथों में ले लिया। 2019 के लोकसभा चुनाव आते-आते यह और भी ज्यादा बड़े पैमाने पर होने लगा है। टेलीविजन और अखबारों के विज्ञापन विभाग के लोग नेताओं के पास गए और उनके साथ कवरेज के लिए सौदे तय कर आए।
                     कई बार एक ही खबर या तस्वीर दो अलग-अलग अखबारों में अलग-अलग पत्रकार के नाम से छपी तो कई बार एक अखबार के एक ही पन्ने पर दो अलग उम्मीदवारों के जीतने की खबरें छपी। मीडिया में पहली बार इतने बड़े पैमाने पर और खुलकर दिखे इस कदाचार का सबूत ढूंढना मुश्किल है लेकिन इसके मजबूत परिस्थितिजन्य साक्ष्य हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव का एग्जिट पोल और ओपिनियन पोल इसी का एक बड़ा रूप है। पेड न्यूज़ के बारे में प्रेस परिषद को कई शिकायतें मिली जिन पर विचार करने के लिए एक उप समिति का गठन किया गया। समिति की रिपोर्ट को भारी काट-छांट और मीडिया समूहों के नाम हटाकर जारी किया गया है। यह सब सतह के अंदर ही रह जाता अगर मीडिया का एक हिस्सा और कुछ पत्रकार मुखर होकर इस प्रवृति के खिलाफ सामने ना आते।

                    इस बारे में सबसे पहले पी साईनाथ की खबर पैकेज डील्स विद क्रेडिबिलिटी डिस्काउंट्स चर्चा में आई। खबर बताती है कि किस तरह विदर्भ में चुनाव की रिपोर्टिंग के दौरान पी. साईनाथ ने इस प्रवृत्ति को देखा उन्होंने इस प्रवृत्ति को लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया के लिए एक खतरे के रूप में देखा। इस पूरी रिपोर्ट में वे जिस प्रवृत्तियों की बात करते हैं उन्हें बिंदुवार रखे तो वे हैं:

1. विदर्भ और कुछ इलाकों में 2009 का चुनाव इस मायने में अलग रहा कि कुछ अखबारों और चैनलों ने कवरेज पैकेज बेचें। इस बार के चुनाव में पैकेज बेचने की प्रवृत्ति पहले से कहीं ज्यादा नजर आई।

2. इस तरह के पैकेज 15 से 20 लाख रुपए से शुरू हो रहे थे ऊंची लागे के पैकेज भी बेचे गए।

3. कवरेज पैकेज से चुनाव लड़ रहे उम्मीदवार कॉलम सेंटीमीटर के हिसाब से फोटो या रिपोर्ट अखबारों में लगवा रहे थे और टीवी पर प्रचार और रैलियां कवर करवा रहे थे।

4. पत्रकारों को भी पैकेज जुटाने के काम में लगाया गया क्योंकि नेताओं तक उनकी पहुंच होती है।

5. छोटे उम्मीदवारों को इस वजह से बिल्कुल कवरेज नहीं मिला।

संसद में पेड न्यूज की चर्चा:

            लोकसभा में यह मामला कम से कम 5 बार सवालों की शक्ल में उठ चुका है और ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के तहत इस पर बहस भी हो चुकी है। सैयद शाहनवाज हुसैन, हंसराज गंगाराम अहीर, हरिश्चंद्र देवराज चौहान, विनय कुमार और शेट्टी राजू ने सूचना और प्रसारण मंत्री से सवाल पूछा कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया में भरने वाले विज्ञापनों से उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए क्या कोई दिशा-निर्देश है। पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रताप सिंह ने सूचना और प्रसारण मंत्री से सवाल पूछा कि क्या सरकार के पास कोई तरीका या प्रक्रिया है जिससे वह मीडिया द्वारा बोलने की आजादी के उल्लंघन और अनियमितताओं और भ्रष्टाचार के आरोपों की निगरानी कर सकती है। राज्यसभा में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान सीपीएम के सांसद सीताराम येचुरी ने पेड न्यूज की प्रवृत्ति को लोकतंत्र के लिए खतरनाक करार दिया। वहीं पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली के मुताबिक पेड़ न्यूज़ को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में नहीं रखा जा सकता। ज्यादा से ज्यादा इसे कारोबार या धंधा कहा जा सकता है ऐसी हालत में इस पर कारोबार के नियम लागू होने चाहिए और इसे भी किसी और कारोबार की तरह रेगुलेट किया जाना चाहिए। उनके मुताबिक या कारोबार गैरकानूनी मकसद से किया जा रहा है और इसकी वजह से चुनावी प्रक्रिया प्रदूषित होती है। अगर सरकार पेड न्यूज को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे से बाहर कर दे तो इसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई का रास्ता खुल सकता है।

Comments

Popular posts from this blog

2G घोटाला औए सीबीआई

समय के साथ परिवर्तन सकारात्मक दिशा में होना अत्यंत महत्वपूर्ण है। 7 साल में हमारे देश के अंदर संचार क्षेत्र में एक क्रांति देखने को मिली हम 2 जी से 4जी चलाकर आनंद लेने लगे परंतु 7 साल में  2जी स्पेक्ट्रम घोटाले का किसी मंजिल तक ना पहुंच पाना देश की जनता और संस्थानों के लिए  दयनीय है। जिस प्रकार न्यायालय ने 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के सभी आरोपियों को बरी कर दिया है उससे न केवल कैग की रिपोर्ट पर ही संदेह होता है अपितु सीबीआई जैसी उच्च संस्थाएं भी शक के दायरे में आती हैं।                          नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक विनोद राय जी ने 2जी स्पेक्ट्रम को लेकर जब चिठ्ठा संसद के सामने रखा तो ना केवल संसद में बल्कि शहर और गांव की गलियों तक भूचाल आ गया । विनोद राय के आकलन के अनुसार 1.76 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ, जो ए राजा की नीति पहले आओ पहले पाओ के कारण हुआ। अब जबकि सीबीआई की विशेष अदालत ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया है तब अनेक पहलू उभरकर सामने आ रहे हैं । इसमें सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि क्या 2G स्पेक्ट्रम घोटाला हुआ ही नहीं था। जो लोग इस बात पर जोर दे रहे हैं कि घोटाला हुआ था वह

कठुआ और उन्नाव बनाम समाज

मां मैं जा रही हूं..... शायद आसिफा के यही आखरी शब्द होंगे जब वह अपने घोड़ों को लेकर जंगल की ओर चराने के लिए गई होगी। कौन जानता था कि अब वह कभी भी लौट के नहीं आएगी? कौन जानता था कि उसके साथ एक पवित्र जगह पर इतना जघन्य अपराध किया जाएगा? एक 8 साल की मासूम बच्ची जिसको अभी अपना बायां और दायां हाथ तक पता नहीं था उसके साथ 8 दिनों तक एक पवित्र जगह पर ऐसा खेल खेला गया कि पूरी मानवता ही शर्मशार हो गई। वह मर ही गई थी लेकिन अभी कुछ बाकी था। अभी वह पुलिसवाला अपनी हवस को मिटाना चाहता था... रुको रुको अभी मारना नहीं मुझे भी हवस बुझानी है। यह खेल ही था जिसमें कुछ दरिंदे थे और एक मासूम बच्ची। जाहिर है कठुआ की खबर जैसे ही देश में फैली वह लोगों के रोंगटे खड़े कर गई। लेकिन इसके बाद भी कुछ तथाकथित हिंदुत्ववादी लोग उन दरिन्दों के  बचाव में  सड़कों पर उतर आए जिन्होंने 8 साल की मासूम बच्ची के साथ ड्रग्स देकर बलात्कार किया। शायद वह उस बच्ची में धर्म तलाश कर रहे थे जो अभी मंदिर मस्जिद को ही सही मायने में नहीं पहचान पायी थी। पहचानती भी कैसे अभी तो वह वोट देने के काबिल भी नहीं हुई थी। मैंने भी जब खबर देखी तो मन म

विज्ञापन: डिस्काउंट के साथ प्राइस टैग

           उदारीकरण के बाद या यूं कहें हमेशा से ही विज्ञापन का गहरा असर रहा है। बस आपके पास दर्शक होने चाहिए विज्ञापन तो चल कर आने लगता है। और शायद यही कारण है कि ज्यादा दर्शक होने के कारण समाज में ज्यादा झूठ फैलाने का काम भी मुख्यधारा की मीडिया कर रही है।                          " मैं खबर और विचार पाठकों को बेचता हूं और अपने पाठकों को विज्ञापनदाताओं को बेचता हूं।"                      पीजी पवार (मराठी समाचार पत्र समूह सकाल के प्रबंध निदेशक)।                       यह उन सवालों का जवाब है कि मीडिया अगर इंडस्ट्री है तो यहां खरीदार कौन है? बेचने वाला कौन और बेचा क्या जा रहा हैम परंपरागत तरीके से कहा जा सकता है कि मीडिया हाउस विक्रेता यानी बेचने वाले हैं, पाठक और दर्शक खरीदने वाले हैं और इस बाजार में जो चीज बेची जा रही है वह अखबार, पत्रिका, टीवी कार्यक्रम या इंटरनेट के कंटेंट यानी समाचार, विचार, फीचर, तस्वीरें, कार्टून आदि। लेकिन इस खरीद बिक्री में मीडिया इंडस्ट्री के कुल राजस्व के सिर्फ 10 से 20% का लेन-देन हो रहा हो तो भी क्या पाठक और दर्शक के नाते कोई कह सकता है

पत्थरबाज और कश्मीर

स्वर्ग के नाम से मशहूर कश्मीर वर्तमान में पत्थर फेंकने वाले लोगों से गुलजार नजर आता है। स्वतंत्रता के पश्चात वर्तमान तक कश्मीर में कभी भी स्थाई शांति देखने को नहीं मिली ।  कुछ समय शान्ति रहने के पश्चात घाटी ओखी  चक्रवात की तरह ऊफान मारने लगती है। अलगाववादी पुनः सक्रिय हो जाते हैं तथा नौजवानों , बच्चों से लेकर महिलाएं पत्थरबाजों की टोली में शामिल हो जाती हैं। इन सब घटनाओं के पीछे सभी के अपने-अपने दृष्टिकोण हो सकते हैं परंतु यह सत्य है कि सृष्टि का प्रत्येक मानव अपने जीवन में सुख शांति चाहता है, फिर ये लोग अपनी जान हथेली पर डालकर क्यों पत्थर फेंकते हैं ,सोचने पर मजबूर कर देता है।।                                साल 2011 में भारत सरकार ने कश्मीरी युवकों को मुख्यधारा में जोड़ने के लिए प्रधानमंत्री विशेष छात्रवृत्ति योजना चालू की थी। इस छात्रवृत्ति योजना में 5000 कश्मीरी युवकों को  प्रत्येक वर्ष देश के अन्य हिस्सों में उच्च शिक्षा प्रदान करने  का लक्ष्य रखा गया था। इसमें 250 इंजीनियरिंग के छात्र, 250 मेडिकल और 4500 छात्र अन्य पाठ्यक्रमों के लिए चुने जाने थे परंतु दुर्भाग्यवश यह आंकड़ा क

क्या आपका आधार सुरक्षित है?

आज से कोई 7 साल पहले जब 2010 में आधार कार्ड बनने प्रारंभ हुए तब बड़ी उत्सुकता से लोगों ने अपनी भागीदारी सुनिश्चित कराई। तब शायद किसी के मस्तिष्क में यह प्रश्न उठा हो कि उंगलियों और आंखों की पुतली का निशान जो हम दे रहे हैं उससे हमारी पहचान का कहाँ तक दुरुपयोग हो सकता है। यही कारण है कि आज 120 करोड़ के करीब लोगों ने अपना आधार कार्ड बनवा लिया है जो कि साल 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की संपूर्ण जनसंख्या के इर्द गिर्द नजर आता है। दरसल आधार कार्ड 12 अंकों का एक विशिष्ट पहचान पत्र है। इसमें किसी भी व्यक्ति का नाम, पता व उम्र के साथ- साथ उसकी उंगलियों व आंख की पुतली के निशान भी दर्ज कराए जाते हैं।                              आधार कार्ड बनाने का कारण भ्रष्टाचार पर प्रहार व मनुष्य की दोहरी पहचान वाली समस्या को सुलझाना था। साल 2010 के बाद अभी तक सरकार कोई भी ऐसा आंकड़ा प्रस्तुत कर पाने में समर्थ नहीं हो पाई है जिसमें उसने आम जनता को बताया हो कि आधार कार्ड से कितना भ्रष्टाचार कम हुआ। परंतु ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं जहां आधार कार्ड मौत का कारण बना हो। इसमें साल 2017 की वह घटना कौन भूल सकता है

मीडिया, लोकतंत्र और पत्रकार?

जब हमको लोकतंत्र और मीडिया के बारे में ABCD भी नहीं पता थी, तब  ही हमारे दिमाग में एक शब्द गढ़ दिया गया था। यह सब्द था चतुर्थ स्तंभ जो कि स्वतंत्र मीडिया के लिए था। हमको बचपन से ही यही सिखाया गया कि मीडिया लोकतंत्र का एक अहम हिस्सा है बल्कि यहां तक बताया गया कि जब मीडिया कमजोर होगा तो लोकतंत्र भी कमजोर होगा। यह सही भी है लेकिन क्या वर्तमान या भूतपूर्व की सरकारों ने लोकतंत्र को मजबूत करने में अपना योगदान दिया क्योंकि चाहे वह कांग्रेस की सरकार रही हो, बीजेपी की या क्यों ना कोई क्षेत्रीय पार्टी सभी ने सदैव लोकतंत्र की मजबूती का ही बोल बोला है। अब यदि सभी पार्टियां लोकतंत्र को एक मजबूत स्थिति की ओर ले जाना चाह रही हैं तो जाहिर है कि वह मीडिया को स्वतंत्र रूप से काम करने में भी अपनी टांग नहीं अड़ाना चाहेंगी। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है जो सरकारें हमको दिखाना चाह रही हैं? यदि आपको लगता है ऐसा नहीं है तो जाहिर है मीडिया की स्वतंत्रता खतरे में है, और जब मीडिया खतरे में है तो लोकतंत्र कैसे सुरक्षित रह सकता है? क्योंकि यदि चतुर्थ खंभा डहा तो लोकतंत्र के तीन अन्य खं भे किस रूप में रहेंगे यह

केरल बाढ़ पर पाखंड क्यों?

photo-pti आजकल सोशल मीडिया पर केरल बाढ़ को लेकर एक अलग नजारा देखने को मिल रहा है। प्रत्येक घटना की तरह केरल की इस भीषण बाढ़ में जिसने ना जाने कितने लोगों की जान छीन ली है के बावजूद भी दो गुट बन गए हैं। एक गुट केरल की इस बाढ़ में वहां के लोगों के साथ खड़ा है। वहीं दूसरा गुट अपनी एक अलग किस्म की पहचान बनाते हुए लोगों द्वारा की जा रही मदद के विरोध में खड़ा है। मदद ना करना यह एक अलग पहलू हो सकता है लेकिन जो लोग मदद के लिए  हाथ बढ़ा रहे हैं उनको रोकना एक भयावह स्थिति को प्रकट करता है, जो कि हमारे देश की एकता व अखंडता के लिए बेहतर नहीं है। दरसल सोशल मीडिया पर केरल बाढ़ को लेकर एक अलग किस्म के किस्से गढ़े जा रहे हैं जो ना तो किसी वैज्ञानिक अवधारणा को अपने में समेटे हैं और ना ही वह तार्किक हैं। क्योंकि केरल की बाढ़ का गाय माता से क्या तात्पर्य? आप सोच रहे होंगे यह गाय माता बीच में कहां से आ गई। तो मैं आपको बताता चलूं कि कुछ लोग सोशल मीडिया पर यह अफवाह फैला रहे हैं कि केरल के लोग गाय का मांस खाते हैं इसलिए जो बाढ़ आई है य ह इसी पाप का नतीजा है।  लोग यही नहीं रुके वह इस बाढ़ को सबरीमाला

कासगंज का सच?

अक्सर लोगों द्वार यह सुनने को मिलता है कि अमेरिका का लोकतंत्र सबसे पुराना तो है लेकिन भारत का लोकतंत्रीय स्वरूप नया होते हुए भी दुनिया को एक मिसाल पेश कर रहा है। यहां इतनी विविधता के होते हुए भी लोग लोकतंत्र को और अधिक मजबूत बनाते जा रहे हैं। आपस में कदम से कदम मिलाकर यहां के लोग भारत को ना केवल जमीन पर बल्कि अंतरिक्ष तक विश्व के सामने एक बेहतरी के साथ खड़ा कर रहे हैं । परंतु कुछ उपद्रवी लोगों द्वारा समाज में एक दूसरे के प्रति नफरत पैदा कर देश को पीछे धकेलने का काम किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश राज्य के कासगंज में भी कुछ उपद्रवियों द्वारा गणतंत्र दिवस के अवसर पर माहौल को खराब करने की कोशिश की गई और वह थोड़े बहुत कामयाब भी हुए। ये उपद्रवी केवल एक धर्म या जाति में नहीं हैं बल्कि प्रत्येक जगह कुछ मात्रा में मिल जाते हैं जो कि पूरे  समाज को नकारात्मक दिशा की ओर मोड़ देते हैं।                                   गणतंत्र दिवस के मौके पर उत्तर प्रदेश के कासगंज में कुछ ऐसा ही देखने को मिला जहां  तिरंगे की यात्रा को लेकर दो समुदायों में भिड़ंत हो गई। और इस भिड़ंत ने काफी उग्र रूप ले लिया इसमें 

करणी सेना और सांप्रदायिक आतंकवाद

कहने के लिए तो देश में लोकतंत्र और संविधान के निर्देशानुसार शासन व्यवस्था चलाई जा रही है। परंतु समाज में व्याप्त कुछ ऐसे सांप्रदायिक तत्व अपना मुंह ऊपर उठाए खड़े रहते हैं जो संविधान की मान मर्यादा को अपने घुटनों के बल टिका देते हैं और यह पोलियो से ग्रसित हो जाता है। इन सांप्रदायिक तत्वों का     भरण-पोषण छोटे-छोटे स्वयं संघ समूह से लेकर देश के बड़े-बड़े स्वयं संघ समूह द्वारा किया जाता है। देश में जो 90 के दशक में सांप्रदायिक बयार चली वह अब धीरे-धीरे तूफान का रूप लेती जा रही है। इसी का एक उदाहरण देखने को मिला जब एक व्यक्ति को राजस्थान में जिंदा जलाया गया और उसका वीडियो बनाकर अपलोड कर दिया गया। हम जैसे देश के लगभग सभी लोगों ने उसको देखा और अपनी-अपनी प्रतिक्रिया देकर रोजमर्रा की जिंदगी में लग गए। जिनके हृदय में अभी थोड़ी दया भावना है,वीडियो देखने पर उनका दिल जरूर पसीजा होगा परंतु अधिकांश लोग उसका वह चित्र एक फिल्म के दृश्य के रूप में देख कर आगे बढ़ गए होंगे। इसमें हद तो तब हो गई जब उस व्यक्ति के लिए देशभर से रुपए का बंदोबस्त किया जाने लगा जिसने यह कारनामा किया था। यह दिखाता कि हमारी सांप्रद

जाति और भारत

जम्मू कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और अरुणाचल से लेकर राजस्थान तक फैले भारत में सैकड़ों जातियों का निवास है। जाति भारतीय व्यवस्था का एक अभिन्न अंग है।वर्तमान में आप बिना जाती व्यवस्था के भारत की कल्पना शायद नहीं कर पाएंगे। भारत की जाति व्यवस्था ने हिन्दू जीवन शैली के साथ-साथ मुस्लिम और ईसाई धर्म को भी प्रभावित किया है।                इतिहास की बात की जाए तो प्राचीन व्यवस्था में जाति का कोई अस्तित्व नहीं था। घुमक्कड़ी जीवन से जब मनुष्य स्थायी जीवन की ओर अग्रसर हुआ तब व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए कुछ परिवर्तन करने पड़े।इसी क्रम में वर्ण व्यवस्था भी अस्तित्व में आयी। वर्ण व्यवस्था में काम के आधार पर लोगों को एक दूसरे से पृथक किया गया। इतिहासकारों का मानना है कि उस समय लोकतांत्रिक व्यवस्था विद्यमान थी अतः किसी भी कार्य को करने के लिए लोग स्वतंत्र थे। इसप्रकार एक सामाजिक व्यवस्था ने जन्म ले लिया होगा। यहाँ यह प्रश्न दिमाक में आता है कि क्या कोई मनुष्य स्वेछा से किसी काम को करने लिए स्वयं राजी हो गया होगा या फिर उसे मजबूर किया गया ? यदि मनुष्य स्वेच्छा से किसी काम को करने के लिए तैय