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मिथक: एक देश एक चुनाव



भारत की सबसे बड़ी खूबसूरती यह है कि तमाम विवादों और कलह के बाद भी लोकतांत्रिक प्रणाली में लोगों का भरोसा बरकरार है। इसी के इर्द गिर्द घूमते हुए देश उस समय एक नई बहस की ओर मुड़ गया जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराने की बात कही। देश में फिलहाल अलग-अलग और लगातार चुनाव होते रहते हैं। इसमें पंचायतों के चुनाव भी शामिल हैं। अब जबकि चुनाव होते ही रहते हैं तो जाहिर है प्रत्येक चुनाव के लिए आचार संहिता लागू होगी जिससे लोगों का आम जनजीवन प्रभावित होगा। यही कारण है कि आचार संहिता रूपी पहलू को आर्थिक दृष्टि से जोड़कर चुनाव के खर्च को कम करने के लिए एक चुनाव की बात पर बल दिया जा रहा है। इसके अतिरिक्त कुछ महानुभाव इतिहास का भी गुणगान करते हैं। बताते चलें कि 1952 से लेकर 1967 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होते आए परंतु उसके पश्चात कुछ राज्यों में कांग्रेस के अतिरिक्त अन्य पार्टियों की सरकारों का गठन हुआ और उनको सशक्त केंद्र के द्वारा गिराने का काम किया गया। यही कारण था कि 1967 के बाद एक साथ चुनाव संभव नहीं हो पाए। इसके अतिरिक्त स्वतंत्रता के पश्चात लोगों की मांगो में भी परिवर्तन आने लगा अब राष्ट्रीय मुद्दों के साथ साथ क्षेत्रीय मुद्दे भी तेजी से उभर कर सामने आने लगे। कांग्रेस द्वारा दिल्ली में बैठकर बनाई जा रही योजनाएं क्षेत्रीय मुद्दों पर कारगर साबित नहीं हो रही थीं इसीलिए क्षेत्रीय मुद्दों को लेकर कई नई पार्टियां उभरकर सामने आने लगीं। अतः जो लोग ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में एक साथ चुनाव की बात करते हैं वह उसी पुरानी परंपरा में जाना चाहते हैं जब केवल केंद्र था, राज्य का अपना कोई अस्तित्व नहीं था। इसी पर हम पुनः काम करेंगे तो जो लोकतंत्र की पहचान है वह मिट जाएगी।समाजवादी पार्टी ,बहुजन समाजवादी पार्टी,आरजेडी व शिवसेना जैसी अनेक छोटी- छोटी पार्टियों का अस्तित्व ही नहीं बचेगा। और यदि छोटी पार्टियां अपने अस्तित्व को बचाने में कामयाब हो गईं और सरकार बना पाने में सक्षम हुईं तो शायद सशक्त केंद्र द्वारा उसी प्रकार से बर्खास्त किया जाएगा जैसे पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा 1968 के बाद अनेक सरकारों को बर्खास्त किया गया था।
                           

 बहरहाल नीति आयोग के साथ-साथ अनेक बड़े नेताओं द्वारा एक साथ चुनाव के पक्ष में तर्क दिए जा रहे हैं। नीति आयोग का मानना है कि 2024 से लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराना राष्ट्र हित में होगा। इसके लिए उसका सुझाव है कि 2024 से  एक साथ चुनाव के लिए कुछ विधानसभाओं के कार्यकाल में कटौती करनी होगी या कुछ के कार्यकाल में विस्तार करना होगा। और इसी कड़ी में कानून दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा तथा राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ संम्पन्न कराने की बात पुनः दोहराई। और प्रधानमंत्री की इस बात को पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा समर्थन भी प्राप्त हुआ। परंतु एक साथ चुनाव से क्या वास्तव में हमारा देश एक बेहतर व्यवस्था में जा पाएगा? शायद ही इसके लिए कोई भी पूर्ण रूप से सहमत हो। एक देश एक चुनाव के पक्ष में बात की जाए तो इसमें आदर्श आचार संहिता का मुद्दा हो या सुरक्षा का मुद्दा जिसमें संपूर्ण देश में अलग अलग समय पर सेना को चुनाव संबंधी प्रक्रिया में लगना पड़ता है जो कि अनावश्यक ही है। इसके अतिरिक्त चुनाव पर होने वाला भारी व्यय  या कर्मचारियों के प्राथमिक दायित्वों के निर्वहन संबंधी मुद्दे  एक नकारात्मक दिशा ही प्रदान करते हैं। परंतु फिर भी लोकतंत्र की आत्मा को बनाए रखने के लिए यह सारे मुद्दे एक साथ चुनाव के विपक्ष में दिए गए तर्क से आगे नहीं बढ़ सकते।
                                एक देश एक चुनाव की बात भले ही हो रही हो लेकिन संविधान में इसके लिए कोई भी प्रावधान नहीं  है। यह दर्शाता है कि हमारे देश में इतनी विविधता के होते हुए एक देश एक चुनाव शायद संभव ही न हो। क्योंकि 1967 के बाद भारत की स्थिति में अत्यंत बदलाव आया है। उस समय कांग्रेस के रूप में एक देश एक पार्टी का प्रचलन था परंतु आज राष्ट्रीय पार्टियों के अतिरिक्त  कई सारी  राज्य स्तर की पार्टियां भी सामने आ गई हैं। जो क्षेत्रीय मुद्दों को प्रमुखता के साथ उठाती रहती हैं  और यही लोकतंत्र की  खूबी भी है।यदि एक साथ चुनाव संभव हो जाता है तो क्या हम सरकार के लिए एक निश्चित कार्यकाल बनाएंगे? क्योंकि बिना निश्चित कार्यकाल के बनाए संभव ही नहीं है पूरे देश में 5 साल तक राज्य और केंद्र सरकार को एक साथ चलाना। अब यदि सरकार निश्चित कार्यकाल बनाती है तो इसके लिए संसद व विधानमंडल के सदस्य अवश्य  आगे आएंगे परंतु जनता के अधिकार का हनन होगा और यह राजतंत्र का ही एक रूप होगा जिसमें जनता को सिर्फ 5 साल में राजा को बदलने या रखने का अधिकार प्राप्त होगा। वह कहावत भी विदा ले लेगी जो कहती है जब-जब चुनाव आता है गरीब के पेट में पुलाव जाता है। क्योंकि चुनाव के समय राजनीतिक पार्टियां हों या फिर राजनेता सभी अपनी जीत के लिए एक कारोबार करते हैं जिसमें एक निश्चित समय के लिए पैसे का जनता की ओर बहाव होता है। साल 2014 के चुनाव में यह कारोबार 30,000 करोड़ सिर्फ राजनीतिक पार्टियों के द्वारा किया गया। जिसमें कुछ समय के लिए सीधा जनता का ही फायदा था। एक साथ चुनाव कराने से ना केवल राजनीतिक पार्टियों की जवाबदेही सीमित हो जाएगी बल्कि राजनेता भी अपने क्षेत्र में शायद ही जाएं इससे आम जनता को प्राप्त होने वाली सुविधाएं और सीमित हो जाएंगी यदि नरेंद्र मोदी सरकार चुनाव से संबंधित सुधार की ओर एक कदम बढ़ाना चाहती है तो इसके लिए उसको राजनीतिक पार्टियों द्वारा किए गए खर्च पर अंकुश लगाना चाहिए और उसकी एक सीमा तय करनी चाहिए जिस प्रकार राजनेताओं के खर्चों की सीमा तय की गई है। इसके अतिरिक्त अलग-अलग राज्यों में आगे पीछे होने वाले विधानसभाओं के चुनाव को  एक साथ करने का प्रयास करना चाहिए। इससे साल में होने वाले बार-बार चुनाव संबंधी प्रक्रिया से छुटकारा मिल सकेगा जिससे साल में  केवल एक ही बार चुनाव  प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा। बहरहाल एक देश एक चुनाव की अपेक्षा वर्तमान में  एक देश एक स्वास्थ्य,एक देश एक शिक्षा व एक देश एक बेहतर जीवन की आवश्यकता अत्यधिक है।

Comments

  1. प्रिय सलमान ----गद्य में आपका लेखन बहुत ही बेहतरीन है | आप थोड़े में ज्यादा लिख जाते हैं | आपने बहुत अच्छा लिखा | आज कई लेख पढ़े आपके | लिखते रहिये | मेरी शुभकामनायें |

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