वर्तमान में पूरा विश्व एक भागदौड़ भरी व्यवस्था में जकड़ता चला जा रहा है। सभी चाहते हैं कि वह जल्दी से जल्दी
तरक्की कर अपना जीवन उच्च पैमाने पर स्थापित कर लें। यह उच्च पैमाना शायद ही किसी के लिए नैतिकता, परोपकार, या सामाजिक पहलू के इर्द-गिर्द घूमता हो क्योंकि वर्तमान वातावरण को देखते हुए यही लग रहा है कि सभी डेटा के पैमाने पर ही अपने को ऊंचा स्थापित करना चाहते हैं। इसमें कोई अपने Facebook फॉलोवर्स बढ़ाना चाहता है तो कोई लाइक,कमेंट बढ़ने पर ही खुश हो जाता है। यह सब व्यवस्था जो चल रही है वह कोई नई नहीं है बस साधन और तरीके बदल गए हैं। बचपन की वह घटना भी एक डेटा रूपी ही खेल था जब पहली बॉल पर आउट होने वाली बॉल को ट्राई बॉल बना कर 1 ओवर के डेटा को 6 की जगह 7 कर देते थे। हम उसको हमेशा खेल-खेल में ही लेते रहे हैं। अब यही खेल यदि कॉर्पोरेट सेक्टर से लेकर हमारी सरकारें भी करने लगी हैं तो भला हमें बुरा क्यों लगना चाहिए। एक खेल ही तो है जिसमें जीरो और दशमलव के इधर-उधर होने से करोड़ों लोगों के जीवन यापन पर प्रभाव पड़ता है। इसी को देखते हुए सरकार भी अब ट्राई बॉल का मजा लेना चाह रही है। वह भी देखना चाह रही है कि 6 की जगह 7 करने पर बेरोजगारों को कितना रोजगार प्रदान कर सकते हैं। आज रविवार का दिन है रोजगार वालों के लिए छुट्टी का दिन है, वह एक सप्ताह काम करने के पश्चात जो थकान आई उसको दूर कर रहे होंगे।वहीं दूसरी ओर हम जैसे बेरोजगार आराम करने से जो थकान आई उसको कुछ काम करके दूर करना चाह रहे हैं परन्तु कैसे यह न तो हम जानते हैं और न ही सरकार हमको बताना चाह रही है।
आज जब हमने लखनऊ से थोड़ी दूर स्थित एक छोटे से गांव में जाकर कमल किशोर से बात करने की कोशिश की तो उनके द्वारा जो बताया गया उससे मन में सहसा एक अजीब सा सवाल पैदा हो गया। सवाल यह कि क्या सरकार सही मायने में लोगों के लिए काम कर रही है या फिर सिर्फ तीन-तीन संसदीय सत्र आहूत करके वह धारा के साथ नाव को बस बहा ही रही है। कमल किशोर कहते हैं कि वह मुश्किल से 365 दिन में सिर्फ 100 दिन ही खेती करते हैं बाकी समय वह इधर उधर व्यतीत कर देते हैं। अब यदि वह अन्य समय में कोई काम नहीं कर रहे हैं तो जाहिर है उनके लिए मनरेगा जैसी योजना कोई मायने नहीं रखती। इस पहलू को देखने पर पता चलता है कि जमीनी स्तर पर एक ऐसा भी समूह है जो मनरेगा जैसी योजना में काम करना ही नहीं चाहता। इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं जैसे सामाजिक, पारिवारिक या भौतिक।अब कारण कुछ भी हों लेकिन यदि एक बड़ा समूह इस महत्वकांक्षी परियोजना से आज भी नहीं जुड़ पाया है तो जाहिर है कि हम कहीं न कहीं सिर्फ आंकड़ो को ही इधर उधर कर रहे हैं। यही वह समूह है जो मनरेगा के तहत काम तो नहीं करता परंतु सरकार के द्वारा दिए जा रहे फंड में सेंधमारी अवश्य करता है। दरसल प्रधान जी और गांव के ग्राम विकास अधिकारी ऐसे लोगों से सिर्फ हस्त्ताक्षर करवा कर तथा उनको 500 रुपये प्रदान कर सम्पूर्ण दिहाड़ी हजम कर जाते हैं। जो भी हो लेकिन सरकार डेटा तो देती ही है कि हमने मनरेगा के लिए 45000 करोड़ रुपए आवंटित किए हैं।
डेटा से संबंधित मसला आजकल Facebook से लेकर कैंब्रिज एनालिटिका में भी खूब छाया हुआ है। अमेरिका चुनाव से लेकर ब्रिटेन एग्जिट पोल जैसे मसले अब फ़ेसबुक के जरिए दूर किए जा रहे हैं। बड़ी बड़ी हस्तियों से लेकर हमारे जैसे आम व्यक्ति भी डरे हुए हैं कि कहीं हमारा भी डेटा चोरी तो नहीं हो रहा है। अब यदि चोरी हो भी रहा है तो क्या फर्क पड़ता , सब कुछ तो खुला बाजार बन गया है। परंतु ये डेटा रूपी बाजार जिसके माध्यम से हमको खुले की बजाय बंद में डाला जा रहा है वह अत्यंत घातक है। हमको वही बेचा जा रहा है जो हम पसंद करते हैं या हमको वह बेचा जा रहा है जो हम पसंद ही नहीं करते यह भी सोचने वाली बात है।वरना गूगलबाबा पर किसी चीज को एक बार देखने पर उसको महीनों फ़ोन के स्क्रीन पर दिखाने की क्या जरूरत।
भारत सरकार भी इस डेटा से संबंधित खेल का खूब मजा ले रही है वह जीडीपी जीएनपी व जीवीए(ग्रॉस वैल्यू एडेड) में लोगों को ऐसे उलझा रही है कि लोग बस वाह-वाह ही करते हैं। अभी हाल ही में जब जीडीपी से संबंधित जानकारी सामने आई तो ऐसा लगा की हम दुनिया के सबसे ज्यादा ताकतवर देश हो गए हैं। परंतु उसी वक्त मुंबई का हाल भी देखने को मिला जहां बेरोजगारी अपने चरम पर थी जो कि हमेशा से उत्तर भारत के लोगों के लिए रोजगार वाली नगरी रही है। इस संबंध में एक शंका उत्पन्न हुई कि कहीं ना कहीं हमसे कुछ तो छुपाया जा रहा है। हम 6 से 7 अंक पर तो पहुंच जाते हैं लेकिन उस एक अंक का फायदा किसको हो रहा है यह नहीं बताया जाता। यदि बताते तो फिर जनता जवाब मांगती कि भाई 1 प्रतिशत लोगों के पास देश का 70 प्रतिशत से भी ज्यादा का धन कैसे है। जाहिर है 6 से 7 में जो 1 अंक का फायदा हुआ है वह उन्ही 1 प्रतिशत लोगों का अधिक हुआ है। यह कैसी व्यवस्था बनती जा रही है जिसमें हम डाटा को बढ़ता देख कर प्रफुल्लित तो होते हैं परंतु जब डाटा रोजगार नहीं दिला पाता तो केवल और केवल निराशा ही रोजगार जैसी लगती है। जाहिर है हमारे नीति निर्माताओं को पुनः सोचने की आवश्यकता है और ऐसी उम्मीद भी है कि वह सोच भी रहे होंगे। इन नीति निर्माताओं से एक गांव का गरीब आदमी यह मांग नहीं करता कि आप नेहरू मॉडल के तहत देश को आगे बढ़ाएं या गांधीजी के गांव-गांव वाली सशक्त अवधारणा से। एक बेरोजगार को जीडीपी के 6 प्रतिशत के साथ बढ़ने से या 60 प्रतिशत के साथ बढ़ने से क्या मतलब जब यह बढ़त उसको कोई रोजगार ही नहीं दिला सकती। हाल ही में आए एक सर्वे के मुताबिक देश में 65% जनसंख्या नियमित बेरोजगारी से जूझ रही है। अब यदि सरकार एक तरफ 7.1 प्रतिशत जीडीपी का आंकड़ा प्रस्तुत करती है तो दूसरी तरफ 65 प्रतिशत वाला आंकड़ा भी कहीं न कहीं सच्चाई ही बयां कर रहा है। हम कब तक इससे बचते रहेंगे?
तरक्की कर अपना जीवन उच्च पैमाने पर स्थापित कर लें। यह उच्च पैमाना शायद ही किसी के लिए नैतिकता, परोपकार, या सामाजिक पहलू के इर्द-गिर्द घूमता हो क्योंकि वर्तमान वातावरण को देखते हुए यही लग रहा है कि सभी डेटा के पैमाने पर ही अपने को ऊंचा स्थापित करना चाहते हैं। इसमें कोई अपने Facebook फॉलोवर्स बढ़ाना चाहता है तो कोई लाइक,कमेंट बढ़ने पर ही खुश हो जाता है। यह सब व्यवस्था जो चल रही है वह कोई नई नहीं है बस साधन और तरीके बदल गए हैं। बचपन की वह घटना भी एक डेटा रूपी ही खेल था जब पहली बॉल पर आउट होने वाली बॉल को ट्राई बॉल बना कर 1 ओवर के डेटा को 6 की जगह 7 कर देते थे। हम उसको हमेशा खेल-खेल में ही लेते रहे हैं। अब यही खेल यदि कॉर्पोरेट सेक्टर से लेकर हमारी सरकारें भी करने लगी हैं तो भला हमें बुरा क्यों लगना चाहिए। एक खेल ही तो है जिसमें जीरो और दशमलव के इधर-उधर होने से करोड़ों लोगों के जीवन यापन पर प्रभाव पड़ता है। इसी को देखते हुए सरकार भी अब ट्राई बॉल का मजा लेना चाह रही है। वह भी देखना चाह रही है कि 6 की जगह 7 करने पर बेरोजगारों को कितना रोजगार प्रदान कर सकते हैं। आज रविवार का दिन है रोजगार वालों के लिए छुट्टी का दिन है, वह एक सप्ताह काम करने के पश्चात जो थकान आई उसको दूर कर रहे होंगे।वहीं दूसरी ओर हम जैसे बेरोजगार आराम करने से जो थकान आई उसको कुछ काम करके दूर करना चाह रहे हैं परन्तु कैसे यह न तो हम जानते हैं और न ही सरकार हमको बताना चाह रही है।
डेटा से संबंधित मसला आजकल Facebook से लेकर कैंब्रिज एनालिटिका में भी खूब छाया हुआ है। अमेरिका चुनाव से लेकर ब्रिटेन एग्जिट पोल जैसे मसले अब फ़ेसबुक के जरिए दूर किए जा रहे हैं। बड़ी बड़ी हस्तियों से लेकर हमारे जैसे आम व्यक्ति भी डरे हुए हैं कि कहीं हमारा भी डेटा चोरी तो नहीं हो रहा है। अब यदि चोरी हो भी रहा है तो क्या फर्क पड़ता , सब कुछ तो खुला बाजार बन गया है। परंतु ये डेटा रूपी बाजार जिसके माध्यम से हमको खुले की बजाय बंद में डाला जा रहा है वह अत्यंत घातक है। हमको वही बेचा जा रहा है जो हम पसंद करते हैं या हमको वह बेचा जा रहा है जो हम पसंद ही नहीं करते यह भी सोचने वाली बात है।वरना गूगलबाबा पर किसी चीज को एक बार देखने पर उसको महीनों फ़ोन के स्क्रीन पर दिखाने की क्या जरूरत।
भारत सरकार भी इस डेटा से संबंधित खेल का खूब मजा ले रही है वह जीडीपी जीएनपी व जीवीए(ग्रॉस वैल्यू एडेड) में लोगों को ऐसे उलझा रही है कि लोग बस वाह-वाह ही करते हैं। अभी हाल ही में जब जीडीपी से संबंधित जानकारी सामने आई तो ऐसा लगा की हम दुनिया के सबसे ज्यादा ताकतवर देश हो गए हैं। परंतु उसी वक्त मुंबई का हाल भी देखने को मिला जहां बेरोजगारी अपने चरम पर थी जो कि हमेशा से उत्तर भारत के लोगों के लिए रोजगार वाली नगरी रही है। इस संबंध में एक शंका उत्पन्न हुई कि कहीं ना कहीं हमसे कुछ तो छुपाया जा रहा है। हम 6 से 7 अंक पर तो पहुंच जाते हैं लेकिन उस एक अंक का फायदा किसको हो रहा है यह नहीं बताया जाता। यदि बताते तो फिर जनता जवाब मांगती कि भाई 1 प्रतिशत लोगों के पास देश का 70 प्रतिशत से भी ज्यादा का धन कैसे है। जाहिर है 6 से 7 में जो 1 अंक का फायदा हुआ है वह उन्ही 1 प्रतिशत लोगों का अधिक हुआ है। यह कैसी व्यवस्था बनती जा रही है जिसमें हम डाटा को बढ़ता देख कर प्रफुल्लित तो होते हैं परंतु जब डाटा रोजगार नहीं दिला पाता तो केवल और केवल निराशा ही रोजगार जैसी लगती है। जाहिर है हमारे नीति निर्माताओं को पुनः सोचने की आवश्यकता है और ऐसी उम्मीद भी है कि वह सोच भी रहे होंगे। इन नीति निर्माताओं से एक गांव का गरीब आदमी यह मांग नहीं करता कि आप नेहरू मॉडल के तहत देश को आगे बढ़ाएं या गांधीजी के गांव-गांव वाली सशक्त अवधारणा से। एक बेरोजगार को जीडीपी के 6 प्रतिशत के साथ बढ़ने से या 60 प्रतिशत के साथ बढ़ने से क्या मतलब जब यह बढ़त उसको कोई रोजगार ही नहीं दिला सकती। हाल ही में आए एक सर्वे के मुताबिक देश में 65% जनसंख्या नियमित बेरोजगारी से जूझ रही है। अब यदि सरकार एक तरफ 7.1 प्रतिशत जीडीपी का आंकड़ा प्रस्तुत करती है तो दूसरी तरफ 65 प्रतिशत वाला आंकड़ा भी कहीं न कहीं सच्चाई ही बयां कर रहा है। हम कब तक इससे बचते रहेंगे?
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https://salmanksath.blogspot.in/2018/03/blog-post_26.html?m=1
अतिउत्तम विचार दोस्त
ReplyDeleteआभार आपका shailabh जी
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ReplyDeleteप्रिय सलमान -- आपने अपने लेख के माध्यम से युवा बेरोजगारों की जो तस्वीर दिखाई वह बेहद दुखद और मर्मान्तक है | युवा किसी भी राष्ट्र का भविष्य होते हैं | उन्हें सही उम्र पर रोजगार मिल जाये तभी वे अपने परिवार और राष्ट्र के सपनों को पूरा कर पाने में सक्षम होते हैं | पर सरकार के दावों से दूर ये सच्चाई बहुत ही हैरान करने वाली है | जिसके यहाँ कोई और जीविका का साधन ना हो सरकारी योजनायें उनके लिए बड़ी आस होती हैं | उन योजनाओं में गडबड घोटाला मानवता के प्रति अपराध है | बहुत अच्छा लिखा आपने | अंकों के चक्कर में मानवता और कानून पिछड़ रहे हैं | सस्नेह --
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