Skip to main content

मीडिया, लोकतंत्र और पत्रकार?

जब हमको लोकतंत्र और मीडिया के बारे में ABCD भी नहीं पता थी, तब  ही हमारे दिमाग में एक शब्द गढ़ दिया गया था। यह सब्द था चतुर्थ स्तंभ जो कि स्वतंत्र मीडिया के लिए था। हमको बचपन से ही यही सिखाया गया कि मीडिया लोकतंत्र का एक अहम हिस्सा है बल्कि यहां तक बताया गया कि जब मीडिया कमजोर होगा तो लोकतंत्र भी कमजोर होगा। यह सही भी है लेकिन क्या वर्तमान या भूतपूर्व की सरकारों ने लोकतंत्र को मजबूत करने में अपना योगदान दिया क्योंकि चाहे वह कांग्रेस की सरकार रही हो, बीजेपी की या क्यों ना कोई क्षेत्रीय पार्टी सभी ने सदैव लोकतंत्र की मजबूती का ही बोल बोला है। अब यदि सभी पार्टियां लोकतंत्र को एक मजबूत स्थिति की ओर ले जाना चाह रही हैं तो जाहिर है कि वह मीडिया को स्वतंत्र रूप से काम करने में भी अपनी टांग नहीं अड़ाना चाहेंगी। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है जो सरकारें हमको दिखाना चाह रही हैं? यदि आपको लगता है ऐसा नहीं है तो जाहिर है मीडिया की स्वतंत्रता खतरे में है, और जब मीडिया खतरे में है तो लोकतंत्र कैसे सुरक्षित रह सकता है? क्योंकि यदि चतुर्थ खंभा डहा तो लोकतंत्र के तीन अन्य खंभे किस रूप में रहेंगे यह तो कोई लोकतंत्र का इंजीनियर ही बता सकता है। कुछ लोग इस बात से सहमत भी नहीं होंगे क्योंकि विश्वास जो है उनको अपने लोकतंत्र पर और होना भी चाहिए। लेकिन यहां कई पहलू हैं जो सोचने पर मजबूर तो कर ही देते हैं। इसमें सबसे प्रमुख पहलू एक हालिया घटनाक्रम है जिसमें एबीपी न्यूज़ चैनल के वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेई को उनके पद से हटना पड़ा।  उनका इस पद से हटना किसी के लिए भी एक आश्चर्य से कम नहीं था।  क्योंकि प्रसून जी के पद से हटने का कारण ही कुछ ऐसा था। कारण बस इतना था कि वह सरकार से  सवाल पूछ रहे थे। यदि लोकतंत्र में भी सवाल नहीं पूछ सकते तो फिर फर्क क्या रह जाता है राजतंत्र और वर्तमान तंत्र में। कुछ लोगों को ऐसा लग सकता है कि यह कोई नई बात नहीं है क्योंकि पुरानी सरकारें भी अपना प्रभाव तो मीडिया पर रखती ही थीं। यह सही भी है लेकिन शायद ही पिछली सरकारों में प्रधानमंत्री ऑफिस से मीडिया संस्थानों को फोन हुआ हो। चाहे वह जनता पार्टी की सरकार हो या क्यों ही ना वह अटल जी की ही सरकार रही हो। द वायर के हिंदी संस्करण में लिखे लेख में प्रसून जी ने बताया कि उनको प्रधानमंत्री ऑफिस से फोन आते थे और बोला जाता था कि वह बिना मोदी जी का नाम लिए रिपोर्टिंग करें। अब यहां मीडिया की स्वतंत्रता किस रूप में है यह भी हमको स्वतंत्रता रूपी किताब में पढ़ना पड़ेगा क्योंकि स्वतंत्रता भी कई प्रकार की होती है। बरहाल कुछ भी हो कम से कम पत्रकार को इस बात की स्वतंत्रा तो मिली ही हुई है कि वह रिपोर्टिंग कर सके, भले मोदी जी का नाम न ले और मोदी जी का नाम लेने का मतलब भी क्या बनता है  ☺️?  अब इतनी सी बात से प्रसून जी को अपने पद से हटने की क्या जरूरत थी? वह भी बिना मोदी जी का नाम लिए सरकार से प्रश्न पूछ ही सकते थे क्योंकि सरकार कोई मोदी जी तो हैं नहीं पूरी मंत्रिपरिषद है।भले ही मंत्रिपरिषद एक अलग रूप में हमारे सामने है। हमको इससे क्या वास्ता कि रक्षा मंत्री की जिम्मेदारी को कोई वित्त मंत्री निभा दे। कम से कम कोई जिम्मेदारी तो निभा रहा है। यदि गठबंधन की सरकार बन सकती है तो गठबंधन के मंत्री क्यों नहीं, यह भी वाजिब प्रश्न है। प्रसून जी के पास मोदी जी से प्रश्न पूछने के अलावा भी कई विकल्प थे। वह रोज एक घंटा हिंदू-मुस्लिम विषय पर अपने स्टूडियो में हो हल्ला करवा सकते थे,इससे टीआरपी भी बढ़ता और देश में एक बेहतरीन माहौल भी पैदा कर सकते थे। और यदि यह भी नहीं करना चाह रहे थे तो वह अन्य पत्रकारों की तरह दो हजार के नोट में चिप ही ढूंढने लग जाते। जाहिर है यह सब काम किसी भी एक अच्छे पत्रकार के लिए करना उतना ही कठिन है जितना अन्य पत्रकारों के लिए सरकार से प्रश्न पूछना।
           
                   

Comments

  1. प्रिय सलमान -- आपने पुण्य प्रसून वाजपेयी जी के बहाने ने अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर घ्यान दिलाया है | सच कहूं तो ब्लॉग्गिंग के कारण मेरा समसामयिक घटनाओं की और कम रुझान रहता है | मुझे घोर आश्चर्य हुआ ये सब जानकर|आपने सच कहा लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ मीडिया ही है | उसे पर्याप्त स्वतन्त्रता मिलनी ही चाहिए अन्यथा कौन सच का साथ देगा और सरकार की खामियों की ओर कौन ध्यान दिलाएगा ?|फिर तो मीडिया चाटुकारिता की भूमिका में ही रह जाएगा |सार्थक सरल लेख सराहनीय है | आजकल सचमुच पत्रकारिता बहुत ही जोखिम का कार्य बनकर रह गई है | आपसे निवेदन है ,कि भाई शशि गुप्ता जी के ब्लॉग '' व्याकुल पथिक ' का नियमित अवलोकन करें | उससे आप पत्रकारिता जगत और पत्रकारिता की अनेक विसगतियों के बारे में सरलता से जान पाएंगे |लिखते रहिये -- सस्नेह ---

    ReplyDelete
  2. Renu जी आपने लेख को विस्तार देते हुए जो हौसला अफजाई की है उसके लिए बहुत बहुत आभार।। आपके द्वारा दिए गए सुझाव में जो व्याकुल पथिक ब्लॉग का जिक्र किया गया है उसको अवश्य ही मैं follow करूंगा।।
    सहृदय धन्यवाद।।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

कठुआ और उन्नाव बनाम समाज

मां मैं जा रही हूं..... शायद आसिफा के यही आखरी शब्द होंगे जब वह अपने घोड़ों को लेकर जंगल की ओर चराने के लिए गई होगी। कौन जानता था कि अब वह कभी भी लौट के नहीं आएगी? कौन जानता था कि उसके साथ एक पवित्र जगह पर इतना जघन्य अपराध किया जाएगा? एक 8 साल की मासूम बच्ची जिसको अभी अपना बायां और दायां हाथ तक पता नहीं था उसके साथ 8 दिनों तक एक पवित्र जगह पर ऐसा खेल खेला गया कि पूरी मानवता ही शर्मशार हो गई। वह मर ही गई थी लेकिन अभी कुछ बाकी था। अभी वह पुलिसवाला अपनी हवस को मिटाना चाहता था... रुको रुको अभी मारना नहीं मुझे भी हवस बुझानी है। यह खेल ही था जिसमें कुछ दरिंदे थे और एक मासूम बच्ची। जाहिर है कठुआ की खबर जैसे ही देश में फैली वह लोगों के रोंगटे खड़े कर गई। लेकिन इसके बाद भी कुछ तथाकथित हिंदुत्ववादी लोग उन दरिन्दों के  बचाव में  सड़कों पर उतर आए जिन्होंने 8 साल की मासूम बच्ची के साथ ड्रग्स देकर बलात्कार किया। शायद वह उस बच्ची में धर्म तलाश कर रहे थे जो अभी मंदिर मस्जिद को ही सही मायने में नहीं पहचान पायी थी। पहचानती भी कैसे अभी तो वह वोट देने के काबिल भी नहीं हुई थी। मैंने भी जब खबर देख...

.....प्रयोग प्रशासन में?

प्रयोग शब्द अपने आप में बहुत कुछ समेटे हुए है। इसी शब्द के माध्यम से विश्व को अनेक नए आयाम देखने को मिले। वह प्रयोग ही था जब हमने पोखरण फतह किया, वह प्रयोग ही था जब मनुष्य चांद पर गया, वह प्रयोग ही था जब एडिशन नौकरानी को कीड़ों का बना आमलेट खिला रहा था। इन सभी प्रयोगों को यदि ध्यान में रखकर किसी से पूछा जाए तो वह सफल ही कहेगा, भले ही पोखरण जैसे प्रयोगों से कितने ही इंसानों का जीवन खतरे में पड़ गया हो,भले ही एडिशन की नौकरानी बीमार पड़ गई हो। आज जब भारतीय प्रशासन में नए प्रयोग की बात कही जा रही है तो कई विद्वान इसको भी भारत के लिए सही कदम बता रहे हैं परंतु क्या वास्तव में यह प्रयोग भी पोखरण के प्रयोग की तरह अपनी कमियों को छुपा पाएगा ? यह भी एक पहेली है।                                  दरसल केंद्र सरकार नौकरशाही को लेकर एक अहम प्रयोग करने जा रही है। इस प्रयोग के जरिए लैटेरल एंट्री के माध्यम से भी लोग उच्च प्रशासनिक सेवा में जा स...

झूठा लोकतंत्र ही सही लेकिन लोकतंत्र तो है।

झूठों ने झूठों से कहा है सच बोलो , सरकारी ऐलान हुआ है सच बोलो । राहत इंदौरी की यह पंक्तियां भला कौन भूल सकता है। और खासकर आज के दौर में तो बिल्कुल ही नहीं जब सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आदि  सभी पहलू  अपने नैतिकता नामक वस्त्र को छोड़ रहे हैं। यदि हम राहत इंदौरी की इन पंक्तियों को भारतीय राजनीति और भारतीय नेताओं से जोड़ दें तो किसी को अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए। वैसे तो राजनीति में झूठ एक कारगर हथियार होता है लेकिन भारतीय राजनीति के मामले में यह परमाणु हथियार का काम करता है। यदि भारतीय राजनीति के इतिहास की बात करें तो प्राचीन काल में हम जा सकते हैं लेकिन फिलहाल स्वतंत्रता आंदोलन के पश्चात की राजनीति को ही देखने का प्रयास करते हैं। भारतीय लोकतंत्र की शुरुआत स्वतंत्रता आंदोलन से ही उभरी जो की नैतिकता से ओतप्रोत थी । जाहिर है आगाज बहुत बेहतरीन हुआ परंतु जैसे-जैसे यह आगे बढ़ता गया नए नए रास्ते निकलने लगे चुनाव जीतने के। इन तरीकों में राजनेताओं को सबसे ज्यादा जो तरीका भाया वह है झूठ का। राजनीति शास्त्र को जब हम एक विषय के रूप में पढ़ते हैं तो उसमें कई सारे उपविषय होते हैं जिनमे...

कासगंज का सच?

अक्सर लोगों द्वार यह सुनने को मिलता है कि अमेरिका का लोकतंत्र सबसे पुराना तो है लेकिन भारत का लोकतंत्रीय स्वरूप नया होते हुए भी दुनिया को एक मिसाल पेश कर रहा है। यहां इतनी विविधता के होते हुए भी लोग लोकतंत्र को और अधिक मजबूत बनाते जा रहे हैं। आपस में कदम से कदम मिलाकर यहां के लोग भारत को ना केवल जमीन पर बल्कि अंतरिक्ष तक विश्व के सामने एक बेहतरी के साथ खड़ा कर रहे हैं । परंतु कुछ उपद्रवी लोगों द्वारा समाज में एक दूसरे के प्रति नफरत पैदा कर देश को पीछे धकेलने का काम किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश राज्य के कासगंज में भी कुछ उपद्रवियों द्वारा गणतंत्र दिवस के अवसर पर माहौल को खराब करने की कोशिश की गई और वह थोड़े बहुत कामयाब भी हुए। ये उपद्रवी केवल एक धर्म या जाति में नहीं हैं बल्कि प्रत्येक जगह कुछ मात्रा में मिल जाते हैं जो कि पूरे  समाज को नकारात्मक दिशा की ओर मोड़ देते हैं।                                   गणतंत्र दिवस के मौके पर उत्तर प्रदेश के कासगंज में कुछ ऐसा ही देखने को मिला जहां  ...

2G घोटाला औए सीबीआई

समय के साथ परिवर्तन सकारात्मक दिशा में होना अत्यंत महत्वपूर्ण है। 7 साल में हमारे देश के अंदर संचार क्षेत्र में एक क्रांति देखने को मिली हम 2 जी से 4जी चलाकर आनंद लेने लगे परं...

गंगा सफाई और नई परियोजनाएं

नव वर्ष 2018 के शुरुआत में जब ठंड अपने चरम बिंदु की ओर अग्रसर है तो वहीं गंगा जैसी तमाम नदियां अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं। अमूमन दिसंबर-जनवरी के समय गंगा वाराणसी में संतोषजनक जल स्तर के साथ बहती है । लोग नए साल का शुभारंभ गंगा में डुबकी लगाकर करते हैं परंतु साल 2018 के आगमन में ही वाराणसी के घाट जल से दूर हो गए हैं। वाराणसी में गंगा, घाट से करीब 30 फिट दूर बह रही है। जिन नदियों के किनारे सिंधु से लेकर मिस्र जैसी दुनिया की बड़ी-बड़ी सभ्यताएं पली-बढ़ी उन्हीं जीवन रूपी नदियों का लोग ऐसा हाल कर देंगे यह विचलित कर देता है । खासतौर पर तब और ज्यादा जब गंगा जैसी नदियों का , जिनको भारत के बुद्धजीवियों ने आस्था के साथ जोड़ा था। उन्होंने शायद यह नहीं सोचा होगा की आस्था के नए रुप भी आने वाली पीढ़ी निकाल लेगी। बहरहाल जो भी हो हालात अत्यंत दुश्वारियों से सुशोभित हो चुके हैं।                      90 के दशक में जब गंगा की हालत अत्यंत बुरी होने लगी तब सरकार का ध्यान इस ओर गया। सन 1986 में जब ...

पत्थरबाज और कश्मीर

स्वर्ग के नाम से मशहूर कश्मीर वर्तमान में पत्थर फेंकने वाले लोगों से गुलजार नजर आता है। स्वतंत्रता के पश्चात वर्तमान तक कश्मीर में कभी भी स्थाई शांति देखने को नहीं मिली ।  कुछ समय शान्ति रहने के पश्चात घाटी ओखी  चक्रवात की तरह ऊफान मारने लगती है। अलगाववादी पुनः सक्रिय हो जाते हैं तथा नौजवानों , बच्चों से लेकर महिलाएं पत्थरबाजों की टोली में शामिल हो जाती हैं। इन सब घटनाओं के पीछे सभी के अपने-अपने दृष्टिकोण हो सकते हैं परंतु यह सत्य है कि सृष्टि का प्रत्येक मानव अपने जीवन में सुख शांति चाहता है, फिर ये लोग अपनी जान हथेली पर डालकर क्यों पत्थर फेंकते हैं ,सोचने पर मजबूर कर देता है।।                                साल 2011 में भारत सरकार ने कश्मीरी युवकों को मुख्यधारा में जोड़ने के लिए प्रधानमंत्री विशेष छात्रवृत्ति योजना चालू की थी। इस छात्रवृत्ति योजना में 5000 कश्मीरी युवकों को  प्रत्येक वर्ष देश के अन्य हिस्सों में उच्च श...

क्या आपका आधार सुरक्षित है?

आज से कोई 7 साल पहले जब 2010 में आधार कार्ड बनने प्रारंभ हुए तब बड़ी उत्सुकता से लोगों ने अपनी भागीदारी सुनिश्चित कराई। तब शायद किसी के मस्तिष्क में यह प्रश्न उठा हो कि उंगलियों ...

जाति और भारत

जम्मू कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और अरुणाचल से लेकर राजस्थान तक फैले भारत में सैकड़ों जातियों का निवास है। जाति भारतीय व्यवस्था का एक अभिन्न अंग है।वर्तमान में आप बिना जाती व्यवस्था के भारत की कल्पना शायद नहीं कर पाएंगे। भारत की जाति व्यवस्था ने हिन्दू जीवन शैली के साथ-साथ मुस्लिम और ईसाई धर्म को भी प्रभावित किया है।                इतिहास की बात की जाए तो प्राचीन व्यवस्था में जाति का कोई अस्तित्व नहीं था। घुमक्कड़ी जीवन से जब मनुष्य स्थायी जीवन की ओर अग्रसर हुआ तब व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए कुछ परिवर्तन करने पड़े।इसी क्रम में वर्ण व्यवस्था भी अस्तित्व में आयी। वर्ण व्यवस्था में काम के आधार पर लोगों को एक दूसरे से पृथक किया गया। इतिहासकारों का मानना है कि उस समय लोकतांत्रिक व्यवस्था विद्यमान थी अतः किसी भी कार्य को करने के लिए लोग स्वतंत्र थे। इसप्रकार एक सामाजिक व्यवस्था ने जन्म ले लिया होगा। यहाँ यह प्रश्न दिमाक में आता है कि क्या कोई मनुष्य स्वेछा से किसी काम को करने लिए स्वयं राजी हो गया होगा या फिर उसे मजबूर किया गया ? यदि मनुष्य ...

करणी सेना और सांप्रदायिक आतंकवाद

कहने के लिए तो देश में लोकतंत्र और संविधान के निर्देशानुसार शासन व्यवस्था चलाई जा रही है। परंतु समाज में व्याप्त कुछ ऐसे सांप्रदायिक तत्व अपना मुंह ऊपर उठाए खड़े रहते है...