Skip to main content

महिला सशक्तिकरण के मायने!!

अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में जब कुछ बुद्धजीवियों द्वारा महिलावादी उपागम को मजबूती के साथ समाज में फैलाने का काम प्रारंभ किया गया। तो शायद सबको लगा होगा कि अब महिलाओं की स्थिति बदल जाएगी। अब वह समाज में व्याप्त स्त्री-पुरुष के भेदभाव से दूर हो जाएगी। अब वह अर्थव्यवस्था में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर पाएगी। अब वह संपत्ति पर अपना हक जमा पाएगी। परंतु इतने सालों में महिला सशक्तिकरण के लिए किए गए कार्यों के पश्चात भी क्या कुछ बदला? आज भी भाषणों, किताबों, लेखों में सिर्फ बातें ही होती हैं और वास्तविक स्थिति एक भिन्न प्रकार से बदल रही है। इस स्थिति को हम 1 साल पहले आई संजय दत्त की भूमि फिल्म से समझ सकते हैं। इस फिल्म में संजय दत्त अपनी बेटी को बेटे से कमतर बिल्कुल नहीं मानता परंतु सामाजिक व्यवस्था के आगे वह बेबस हो जाता है। इस फिल्म ने भारतीय परम्परा की कुछ ना हजम होने वाली बातों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है। इसमें दिखाया गया है कि जहां हम एक ओर स्त्री को देवी मानकर पूजा करते हैं वहीं दूसरी ओर गणेश जी की आरती "बांझन को पुत्र दे निर्धन को माया" में स्त्री को अत्यंत निचले पायदान पर पहुँचाने का काम कर रहे हैं। इसके माध्यम से पहले तो हम स्त्री को दुनिया में आने ही नहीं दे रहे हैं और यदि वह आ भी गई तो उसको बांझन तबका पहना दे रहे हैं। स्त्री की ऐसी स्थिति केवल एक परिवेश, समाज और धर्म में नहीं बल्कि सर्वत्र व्याप्त है।
                              अब बात करते हैं 8 मार्च की जब अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पूरे जोश के साथ मनाया गया। यह दिवस सर्वप्रथम 1909 में जब हम गुलाम थे, तब मनाया गया। इसके पश्चात संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वर्ष 1975 से प्रत्येक वर्ष मनाया जा रहा है। 43 साल से प्रत्येक वर्ष हम 8 मार्च को नारी शक्ति को अपनी खोपड़ी पर बैठाने का काम करते हैं और 9 मार्च को फिर से रोड पर फेंक देते हैं। इन 43 सालों में सिर्फ महिला दिवस मनाने का तरीका ही बदला है और कुछ भी नहीं। पहले फेसबुक, व्हाट्सएप नहीं था अतः केवल संस्थानों आदि में महिला दिवस की बधाइयां दी जाती थीं। आज फेसबुक, व्हाट्सएप से लेकर इंस्टाग्राम, गूगल प्लस पर महिला दिवस से संबंधित बधाईयों का ढेर लग जाता है। यदि इतनी सारी बधाइयां पुरुषवादी मानसिकता से निकल कर दी गई हैं तो फिर क्यों हम आज भी पुरुषवादी समाज को बदल पाने में नाकाम हैं। जाहिर है यह सिर्फ एक ढकोसला ही है जिसमें सभी दिखावे की प्रवृति में आगे बढ़ रहे हैं। इसी दिखावे की प्रवृत्ति में बॉलीवुड पहाड़ की चोटी पर बैठा हुआ है जो अपनी चमक-धमक से सबको भयभीत करता रहता है। देश को यह संदेश देने का काम किया जाता है कि यहां पर पुरुषवादी मानसिकता बिल्कुल नहीं परंतु शायद यह सिर्फ कैमरे के सामने है। कैमरे के पीछे का परिदृश्य यदि सामने आ जाए तो हमारी मनोस्थिति भयभीत हो जाएगी। हाल ही में जब श्रीदेवी का निधन हुआ तब कई ऐसी खबरें आयीं कि वह अपने बच्चों और पति को लेकर अवसाद में रहती थीं। यह कहानी सिर्फ एक श्रीदेवी की नहीं बल्कि न जाने कितनी की होगी। 'मी टू' अभियान के जरिए जब ग्लैमर जगत की सच्चाइयां अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर  सामने आई तो बॉलीवुड की ऋचा चड्ढा ने भी कुछ सच्चाई उजागर करने की बात कही परंतु उनकी रोजी-रोटी ने उन्हें रोक लिया। यह दिखाता है कि एक ऐसा क्षेत्र जिसका उदाहरण पुरुष व स्त्री के समानता रूपी पहलू के अंतर्गत दिया जाता है वह किस प्रकार पुरुषवादी मानसिकता के जबड़े में फंसा है। चमक धमक रूपी स्त्री सशक्तिकरण के बजाय आवश्यकता है बुद्धि कौशल संबंधी सशक्तिकरण की जो असल में महिलाओं को समानता के स्तर पर पहुंचाएगा।
                            विश्व स्तर पर यदि महिला सशक्तिकरण से संबंधित आंकड़ों की बात की जाए तो यह आंकड़े सब को भयभीत कर देने वाले हैं। दुनियाभर के सांसदों में महिलाओं की भागीदारी केवल 22.6 प्रतिशत की है, केवल 33.3 प्रतिशत महिलाएं पत्रकारिता के क्षेत्र में पूर्णकालिक अवधि में कार्यरत हैं। इसके साथ ही आय संबंधी आंकड़े और ज्यादा दुर्लभ हैं। वैश्विक स्तर पर महिलाओं और पुरुषों के बीच 23% आय असमानता देखने को मिलती है जिसमें ग्रामीण क्षेत्र में यह आंकड़ा 40 प्रतिशत अंतर के साथ विद्यमान है। अब यदि महिला सशक्तिकरण को सही मायने में धरातल पर लाना है तो जाहिर है हमें महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त करना पड़ेगा। महिलाओं को घर में कैद करके हम अपना संपूर्ण विकास कभी भी नहीं कर सकते। हमें समाज की उस मनोवृत्ति से बाहर आना पड़ेगा जिसमें बच्चियों को इसलिए पढ़ाया जाता है ताकि उनकी अच्छी जगह शादी हो जाए। इन्हीं बच्चियों को लेकर ग्लोबल अर्ली एडालसेन्ट स्टडी ने कहा कि बच्चों में कम उम्र में लैंगिग रूप से भेदभाव पनप रहा है। इसके साथ ही साथ 2017 में विश्व बैंक द्वारा एक रिपोर्ट जारी की गई जो महिलाओं के रोजगार से संबंधित थी। इस रिपोर्ट में बताया गया कि 131 देशों में भारत इस मामले में 121 वें स्थान पर है, वह पड़ोसी देश बांग्लादेश और नेपाल से भी बुरी स्थिति में है।  जाहिर है या भेदभाव आने वाले समय में समाज को एक अलग प्रकार से  बांटेगा। वर्तमान की स्थिति को देखते हुए ना केवल महिलाओं को शिक्षित करने की आवश्यकता है बल्कि परंपरागत शिक्षा से तकनीकी शिक्षा की ओर भी ले जाने की सख्त आवश्यकता है। हम केवल 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' तक सीमित नहीं हो सकते हमको 'बेटी पढ़ाओ बेटी कमाओ' तक जाना होगा तभी एक बेहतर समाज का निर्माण होगा जिसमें स्त्रियों की बराबर की भागीदारी होगी।

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

कठुआ और उन्नाव बनाम समाज

मां मैं जा रही हूं..... शायद आसिफा के यही आखरी शब्द होंगे जब वह अपने घोड़ों को लेकर जंगल की ओर चराने के लिए गई होगी। कौन जानता था कि अब वह कभी भी लौट के नहीं आएगी? कौन जानता था कि उसके साथ एक पवित्र जगह पर इतना जघन्य अपराध किया जाएगा? एक 8 साल की मासूम बच्ची जिसको अभी अपना बायां और दायां हाथ तक पता नहीं था उसके साथ 8 दिनों तक एक पवित्र जगह पर ऐसा खेल खेला गया कि पूरी मानवता ही शर्मशार हो गई। वह मर ही गई थी लेकिन अभी कुछ बाकी था। अभी वह पुलिसवाला अपनी हवस को मिटाना चाहता था... रुको रुको अभी मारना नहीं मुझे भी हवस बुझानी है। यह खेल ही था जिसमें कुछ दरिंदे थे और एक मासूम बच्ची। जाहिर है कठुआ की खबर जैसे ही देश में फैली वह लोगों के रोंगटे खड़े कर गई। लेकिन इसके बाद भी कुछ तथाकथित हिंदुत्ववादी लोग उन दरिन्दों के  बचाव में  सड़कों पर उतर आए जिन्होंने 8 साल की मासूम बच्ची के साथ ड्रग्स देकर बलात्कार किया। शायद वह उस बच्ची में धर्म तलाश कर रहे थे जो अभी मंदिर मस्जिद को ही सही मायने में नहीं पहचान पायी थी। पहचानती भी कैसे अभी तो वह वोट देने के काबिल भी नहीं हुई थी। मैंने भी जब खबर देख...

.....प्रयोग प्रशासन में?

प्रयोग शब्द अपने आप में बहुत कुछ समेटे हुए है। इसी शब्द के माध्यम से विश्व को अनेक नए आयाम देखने को मिले। वह प्रयोग ही था जब हमने पोखरण फतह किया, वह प्रयोग ही था जब मनुष्य चांद पर गया, वह प्रयोग ही था जब एडिशन नौकरानी को कीड़ों का बना आमलेट खिला रहा था। इन सभी प्रयोगों को यदि ध्यान में रखकर किसी से पूछा जाए तो वह सफल ही कहेगा, भले ही पोखरण जैसे प्रयोगों से कितने ही इंसानों का जीवन खतरे में पड़ गया हो,भले ही एडिशन की नौकरानी बीमार पड़ गई हो। आज जब भारतीय प्रशासन में नए प्रयोग की बात कही जा रही है तो कई विद्वान इसको भी भारत के लिए सही कदम बता रहे हैं परंतु क्या वास्तव में यह प्रयोग भी पोखरण के प्रयोग की तरह अपनी कमियों को छुपा पाएगा ? यह भी एक पहेली है।                                  दरसल केंद्र सरकार नौकरशाही को लेकर एक अहम प्रयोग करने जा रही है। इस प्रयोग के जरिए लैटेरल एंट्री के माध्यम से भी लोग उच्च प्रशासनिक सेवा में जा स...

झूठा लोकतंत्र ही सही लेकिन लोकतंत्र तो है।

झूठों ने झूठों से कहा है सच बोलो , सरकारी ऐलान हुआ है सच बोलो । राहत इंदौरी की यह पंक्तियां भला कौन भूल सकता है। और खासकर आज के दौर में तो बिल्कुल ही नहीं जब सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आदि  सभी पहलू  अपने नैतिकता नामक वस्त्र को छोड़ रहे हैं। यदि हम राहत इंदौरी की इन पंक्तियों को भारतीय राजनीति और भारतीय नेताओं से जोड़ दें तो किसी को अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए। वैसे तो राजनीति में झूठ एक कारगर हथियार होता है लेकिन भारतीय राजनीति के मामले में यह परमाणु हथियार का काम करता है। यदि भारतीय राजनीति के इतिहास की बात करें तो प्राचीन काल में हम जा सकते हैं लेकिन फिलहाल स्वतंत्रता आंदोलन के पश्चात की राजनीति को ही देखने का प्रयास करते हैं। भारतीय लोकतंत्र की शुरुआत स्वतंत्रता आंदोलन से ही उभरी जो की नैतिकता से ओतप्रोत थी । जाहिर है आगाज बहुत बेहतरीन हुआ परंतु जैसे-जैसे यह आगे बढ़ता गया नए नए रास्ते निकलने लगे चुनाव जीतने के। इन तरीकों में राजनेताओं को सबसे ज्यादा जो तरीका भाया वह है झूठ का। राजनीति शास्त्र को जब हम एक विषय के रूप में पढ़ते हैं तो उसमें कई सारे उपविषय होते हैं जिनमे...

कासगंज का सच?

अक्सर लोगों द्वार यह सुनने को मिलता है कि अमेरिका का लोकतंत्र सबसे पुराना तो है लेकिन भारत का लोकतंत्रीय स्वरूप नया होते हुए भी दुनिया को एक मिसाल पेश कर रहा है। यहां इतनी विविधता के होते हुए भी लोग लोकतंत्र को और अधिक मजबूत बनाते जा रहे हैं। आपस में कदम से कदम मिलाकर यहां के लोग भारत को ना केवल जमीन पर बल्कि अंतरिक्ष तक विश्व के सामने एक बेहतरी के साथ खड़ा कर रहे हैं । परंतु कुछ उपद्रवी लोगों द्वारा समाज में एक दूसरे के प्रति नफरत पैदा कर देश को पीछे धकेलने का काम किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश राज्य के कासगंज में भी कुछ उपद्रवियों द्वारा गणतंत्र दिवस के अवसर पर माहौल को खराब करने की कोशिश की गई और वह थोड़े बहुत कामयाब भी हुए। ये उपद्रवी केवल एक धर्म या जाति में नहीं हैं बल्कि प्रत्येक जगह कुछ मात्रा में मिल जाते हैं जो कि पूरे  समाज को नकारात्मक दिशा की ओर मोड़ देते हैं।                                   गणतंत्र दिवस के मौके पर उत्तर प्रदेश के कासगंज में कुछ ऐसा ही देखने को मिला जहां  ...

2G घोटाला औए सीबीआई

समय के साथ परिवर्तन सकारात्मक दिशा में होना अत्यंत महत्वपूर्ण है। 7 साल में हमारे देश के अंदर संचार क्षेत्र में एक क्रांति देखने को मिली हम 2 जी से 4जी चलाकर आनंद लेने लगे परं...

पत्थरबाज और कश्मीर

स्वर्ग के नाम से मशहूर कश्मीर वर्तमान में पत्थर फेंकने वाले लोगों से गुलजार नजर आता है। स्वतंत्रता के पश्चात वर्तमान तक कश्मीर में कभी भी स्थाई शांति देखने को नहीं मिली ।  कुछ समय शान्ति रहने के पश्चात घाटी ओखी  चक्रवात की तरह ऊफान मारने लगती है। अलगाववादी पुनः सक्रिय हो जाते हैं तथा नौजवानों , बच्चों से लेकर महिलाएं पत्थरबाजों की टोली में शामिल हो जाती हैं। इन सब घटनाओं के पीछे सभी के अपने-अपने दृष्टिकोण हो सकते हैं परंतु यह सत्य है कि सृष्टि का प्रत्येक मानव अपने जीवन में सुख शांति चाहता है, फिर ये लोग अपनी जान हथेली पर डालकर क्यों पत्थर फेंकते हैं ,सोचने पर मजबूर कर देता है।।                                साल 2011 में भारत सरकार ने कश्मीरी युवकों को मुख्यधारा में जोड़ने के लिए प्रधानमंत्री विशेष छात्रवृत्ति योजना चालू की थी। इस छात्रवृत्ति योजना में 5000 कश्मीरी युवकों को  प्रत्येक वर्ष देश के अन्य हिस्सों में उच्च श...

क्या आपका आधार सुरक्षित है?

आज से कोई 7 साल पहले जब 2010 में आधार कार्ड बनने प्रारंभ हुए तब बड़ी उत्सुकता से लोगों ने अपनी भागीदारी सुनिश्चित कराई। तब शायद किसी के मस्तिष्क में यह प्रश्न उठा हो कि उंगलियों ...

गंगा सफाई और नई परियोजनाएं

नव वर्ष 2018 के शुरुआत में जब ठंड अपने चरम बिंदु की ओर अग्रसर है तो वहीं गंगा जैसी तमाम नदियां अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं। अमूमन दिसंबर-जनवरी के समय गंगा वाराणसी में संतोषजनक जल स्तर के साथ बहती है । लोग नए साल का शुभारंभ गंगा में डुबकी लगाकर करते हैं परंतु साल 2018 के आगमन में ही वाराणसी के घाट जल से दूर हो गए हैं। वाराणसी में गंगा, घाट से करीब 30 फिट दूर बह रही है। जिन नदियों के किनारे सिंधु से लेकर मिस्र जैसी दुनिया की बड़ी-बड़ी सभ्यताएं पली-बढ़ी उन्हीं जीवन रूपी नदियों का लोग ऐसा हाल कर देंगे यह विचलित कर देता है । खासतौर पर तब और ज्यादा जब गंगा जैसी नदियों का , जिनको भारत के बुद्धजीवियों ने आस्था के साथ जोड़ा था। उन्होंने शायद यह नहीं सोचा होगा की आस्था के नए रुप भी आने वाली पीढ़ी निकाल लेगी। बहरहाल जो भी हो हालात अत्यंत दुश्वारियों से सुशोभित हो चुके हैं।                      90 के दशक में जब गंगा की हालत अत्यंत बुरी होने लगी तब सरकार का ध्यान इस ओर गया। सन 1986 में जब ...

मृतक का बैंक में जमा पैसा कैसे जानें?

आर्थिक नीतियों के बदलाव के पश्चात बैंकिंग प्रणाली कहीं ना कहीं हमारे लिए अति आवश्यक हो गई है। इसी बैंकिंग प्रणाली को लेकर तब कई सारे प्रश्न दिमाक में उठते हैं जब किसी खाता धारक की मृत्यु हो जाती है। जैसे मृत्यु के पश्चात बैंक खाते का क्या होता है ? क्या पैसा बैंक का हो जाता है? क्या बैंक उस पैसे को व्यक्ति के परिवार के किसी सदस्य को दे देता है? या फिर उसको किसी फंड में जमा कर दिया जाता है? दरअसल यह पैसा उसी अकाउंट में पड़ा रहता है और एक लंबे समय अंतराल के पश्चात ऐसे अकाउंट को निष्क्रिय घोषित कर दिया जाता है। कुछ दिन पहले भारतीय रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट सामने आई जिसके अनुसार बैंकों में हजारों करोड़ रुपए ऐसे पड़े हैं जिनका कोई दावेदार ही नहीं है। ऐसा उन स्थितियों में होता है जब किसी खाता धारक की मृत्यु हो जाती है या फिर किसी के बहुत से बैंकों में खाते होते हैं। मौत होने की स्थिति में नॉमिनी पैसों के लिए दावा तो कर सकता है लेकिन कई बार नॉमिनी को खाते के बारे में जानकारी ही नहीं होती है। और यदि जानकारी होती भी है तो कुछ दस्तावेजों की कमी के वजह से भी दावा नहीं हो पाता है।भारतीय रिज...

खेल अंको का !

वर्तमान में पूरा विश्व एक भागदौड़ भरी व्यवस्था में जकड़ता चला जा रहा है। सभी चाहते हैं कि वह जल्दी से जल्दी तरक्की कर अपना जीवन उच्च पैमाने पर स्थापित कर लें। यह उच्च पैमाना शायद ही किसी के लिए नैतिकता, परोपकार, या सामाजिक पहलू के इर्द-गिर्द घूमता हो क्योंकि वर्तमान वातावरण को देखते हुए यही लग रहा है कि सभी डेटा के पैमाने पर ही अपने को ऊंचा स्थापित करना चाहते हैं। इसमें कोई अपने Facebook फॉलोवर्स बढ़ाना चाहता है तो कोई लाइक,कमेंट बढ़ने पर ही खुश हो जाता है। यह सब व्यवस्था जो चल रही है वह कोई नई नहीं है बस साधन और तरीके बदल गए हैं। बचपन की वह घटना भी एक डेटा रूपी ही खेल था जब पहली बॉल पर आउट होने वाली बॉल को ट्राई बॉल बना कर 1 ओवर के डेटा को 6 की जगह 7 कर देते थे। हम उसको हमेशा खेल-खेल में ही लेते रहे हैं। अब यही खेल यदि कॉर्पोरेट सेक्टर से लेकर हमारी सरकारें भी करने लगी हैं तो भला हमें बुरा क्यों लगना चाहिए। एक खेल ही तो है जिसमें जीरो और दशमलव के इधर-उधर होने से करोड़ों लोगों के जीवन यापन पर प्रभाव पड़ता है। इसी को देखते हुए सरकार भी अब ट्राई बॉल का मजा लेना चाह रही है। वह भी देखन...