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मौलाना का थप्पड़ और टीवी डिबेट का गिरता स्तर।

वर्तमान में भारतीय परिदृश्य को देखते हुए यह लगता है कि 130 करोड़ की जनता को धर्म पर बहस कुछ ज्यादा ही भाँती है। यदि ऐसा नहीं होता तो प्रत्येक शाम को ताल ठोक के, से लेकर अनेक टीवी प्रोग्राम धर्म से संबंधित नहीं होते। टीवी चैनल तो अपना काम कर रहे हैं लेकिन हम क्यों यह देखना चाहते हैं शायद किसी को पता नहीं। धार्मिक कर्मकांडों ने हम मनुष्य को इतना जकड़ लिया है कि किसी भी प्रकार से धर्म की बुराई बर्दाश्त ही नहीं कर सकते। धर्म से संबंधित कोई एक ही टिप्पड़ी कर दे तो बेचारे की जान पर आ जाती है।
                         जी हिंदुस्तान नामक चैनल पर जब बहस चल रही थी तो एक महिला व एक मौलाना के बीच आपसी झड़प ने ऐसा माहौल बनाया कि पूरा देश सकते में आ गया। इस प्रकार का वाकया कोई पहली बार नहीं हुआ है। पिछले कई सालों से ऐसी झड़पें लाइव टीवी शो पर देखने को मिल ही जाती हैं। अब सवाल उठता है कि न्यूज़ चैनल इस प्रकार की मानशिकता वाले लोगों को बुलाते ही क्यों हैं? लेकिन तभी आर्थिक पहलू याद आता  है। दरअसल टीवी चैनल वाले भी जानते हैं कि इस प्रकार की बहस समाज व देश के लिए कितनी लाभकारी है। लेकिन फिर भी वह इस प्रकार की बहस कराते ही रहते हैं। कभी-कभी तो बहस में क्या बोला जा रहा है पता ही नहीं चलता,बस तेज-तेज आवाजें ही कानों में गूंजती हैं। लेकिन हम भारतीय लोग इतने उदारवादी हैं कि उस चैनल से हटने का नाम ही नहीं लेते।
                                                यदि सुबह से शाम तक ऐसी बहस होती रहे तो सुबह से शाम तक वह बैठे रहेंगे। अब यदि ऐसा है तो जाहिर है कि कोई ना कोई पहलू तो अवश्य काम कर रहा है जो व्यक्ति को जकड़े हुए है। चाहे वह धर्म हो,जाति हो या अन्य कोई क्षेत्रीय मुद्दा। इन सब पहलुओं में धर्म एक ऐसा पहलू है जो सबसे ज्यादा भयावह है। धर्म के नाम पर एक ऐसा डर बनाया गया है कि हम तर्क करने में भी डरते हैं। यही कारण है कि जब टीवी पर डिबेट हो रही होती है तो भिन्न विचारधारा के लोग घर, ऑफिस या चाय की दुकान पर मन-ही-मन या एक-दूसरे के साथ मिलकर गाली दे रहे होते हैं। यह एक बीमारी है जो अंदर ही अंदर व्यक्ति को समाप्त कर रही है लेकिन हम समझ ही नहीं पा रहे हैं। यदि समझते तो आज टीवी चैनलों पर इस प्रकार की बहस ना होकर जनता के मूलभूत मुद्दों पर बहस हो रही होती। तब शायद हमको यह पता चलता कि आज भी देश में 30 करोड़ लोग रोज भूखे सोने को मजबूर हैं।  प्रत्येक मिनट किसान आत्महत्या कर रहा है। लोग अपनी जान जोखिम में डालकर ट्रेनों में सफर कर रहे हैं।  रोज ना जाने कितनी मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार हो जाता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल जितनी जाने आतंकी घटनाओं में नहीं गईं उससे ज्यादा सड़क पर मौजूद गड्ढों से होने वाली दुर्घटनाओं के कारण गईं। लेकिन इससे हमें क्या फर्क पड़ता है??
                              

Comments

  1. प्रिय सलमान आपका ये लख पढ़ उसी दिन लिया था पर व्यस्ता के चलते लिखने का अवसर नहीं मिला | आपने टी वी चैनलों की जिस मानसिकता का जिक्र किया है वो बहुत ही कुत्सिकता की ओर अग्रसर है | सही कहा आपने कितने मुद्दे हैं देश के समक्ष पर इन्हें यही मुद्दा भाता है | किसी एक कमअक्ल इंसान ने अगर दुसरे धर्म के बारे में बेवकूफी वाली बात निकाली तो उस दबी छुपी बात को बतंगड़ बना जोर शोर से ढोल के साथ गाना और जहाँ नहीं जानी चाहिए वहां पहुंचाना इनकी फितरत बन चुकी है | इन टी वी शोज पर प्रतिबंध लगना चाहिए | ये आपसी भाईचारे और सौहार्द को जबरदस्त नुक्सान पहुंचा रहे हैं | अच्छा लिखा आपने | सस्नेह --

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  2. Renu जी आपने कीमती समय निकाल कर लेख पर प्रतिक्रिया दिया उसके लिए आपका बहुत-बहुत आभार।।

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