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विज्ञापन: डिस्काउंट के साथ प्राइस टैग

          
उदारीकरण के बाद या यूं कहें हमेशा से ही विज्ञापन का गहरा असर रहा है। बस आपके पास दर्शक होने चाहिए विज्ञापन तो चल कर आने लगता है। और शायद यही कारण है कि ज्यादा दर्शक होने के कारण समाज में ज्यादा झूठ फैलाने का काम भी मुख्यधारा की मीडिया कर रही है।

                         "मैं खबर और विचार पाठकों को बेचता हूं और अपने पाठकों को विज्ञापनदाताओं को बेचता हूं।"
                     पीजी पवार (मराठी समाचार पत्र समूह सकाल के प्रबंध निदेशक)।
   
                  यह उन सवालों का जवाब है कि मीडिया अगर इंडस्ट्री है तो यहां खरीदार कौन है? बेचने वाला कौन और बेचा क्या जा रहा हैम परंपरागत तरीके से कहा जा सकता है कि मीडिया हाउस विक्रेता यानी बेचने वाले हैं, पाठक और दर्शक खरीदने वाले हैं और इस बाजार में जो चीज बेची जा रही है वह अखबार, पत्रिका, टीवी कार्यक्रम या इंटरनेट के कंटेंट यानी समाचार, विचार, फीचर, तस्वीरें, कार्टून आदि। लेकिन इस खरीद बिक्री में मीडिया इंडस्ट्री के कुल राजस्व के सिर्फ 10 से 20% का लेन-देन हो रहा हो तो भी क्या पाठक और दर्शक के नाते कोई कह सकता है कि वही असली खरीदार हैं। टेलीविज़न न्यूज़ चैनलों की बात करें तो ज्यादातर न्यूज़ चैनल देखने के लिए दर्शकों को कोई पैसा खर्च नहीं करना पड़ता, फ्री टू एयर चैनल देखने वाला टीवी दर्शक या ₹50 से ₹100 लागत वाला अखबार ₹3 में खरीदने पाठक जा सकता है कि वह मीडिया उद्योग में खरीददार की हैसियत रखता है तो फिर मीडिया इंडस्ट्री में बेचा क्या जा रहा है जिससे पूरा कारोबार चलता है।

                          मीडिया कारोबार में जो चीज मुख्य रूप से बेची जा रही है वह पाठक और दर्शक हैं। विज्ञापनदाताओं के हाथों पाठकों और दर्शकों को बेचकर ही मीडिया इंडस्ट्री का 80 से 90% तक पैसा आ रहा है। इस सौदे में बेचने वाले तो मीडिया हाउस ही हैं और खरीददार हैं विज्ञापनदाता और बिकने वाली चीज है पाठक और दर्शक। पश्चिम के मीडिया विश्लेषकों और शोधार्थियों ने मीडिया कारोबार के इस चलन को काफी पहले पहचान लिया था कि मीडिया इंडस्ट्री का प्रमुख लक्ष्य समृद्ध पाठकों और दर्शकों को विज्ञापनदाताओं के सुपुर्द कर देना है। दर्शकों और पाठकों तक सूचनाएं और समाचार पहुंचना इस लक्ष्य को हासिल करने का जरिया है और यहकाम लागत, लाभ और हानि के गणित को ध्यान में रखकर ही किया जाता है।

                     सवाल उठता है कि अगर पाठक और दर्शक बेचे और खरीदे जाने वाले माल हैं तो किसी मीडिया इंडस्ट्री को ज्यादा और कम कमाई क्यों होती है? इस हिसाब से तो जिसके पास बेचने के लिए ज्यादा पाठक और दर्शक हों उस मीडिया हाउस की आमदनी ज्यादा होनी चाहिए। यानी दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर की आमदनी टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम से ज्यादा होनी चाहिए। इसी तरह इंडिया टीवी की कमाई एनडीटीवी से ज्यादा होनी चाहिए क्योंकि इंडिया टीवी ज्यादा लोग देखते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। पाठकों और दर्शकों की संख्या और विज्ञापन से होने वाली आमदनी का संबंध सीधा नहीं है। विज्ञापनदाता किसी मीडिया उत्पाद पर विज्ञापन देने के ज्यादा और किसी के लिए कम पैसे क्यों चुकाते हैं? तो ज्यादा बिकने वाला कोई प्रकाशन घाटे में क्यों रहता है या बंद क्यों हो जाता है एक बार या चैनल विज्ञापन से मिलने वाले पैसों के लिए चलाए जाते हैं तो संपादकीय की मीडिया उद्योग में क्या हैसियत रह गई। इस तरह के कई सवाल हैं जिनके जवाब जानने के लिए जरूरी है कि मीडिया व्यवसाय और विज्ञापन के रिश्तों को समझा जाए।

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