गांधीजी और मैकियावेली ने मनुष्य के प्रति जो अपनी विचारधारा बनाई वह समुद्र के दो किनारों के जैसे थी। जहां गांधी जी मनुष्य को जन्म के आधार पर एक दयालू, ईमानदार और परोपकारी प्राणी मानते हैं वहीं मैकियावेली मनुष्य को उसके कार्यों के आधार पर स्वार्थी, क्रूर बताने का प्रयास करता है। हालांकि मैकियावेली की यह बात गलत ही साबित होती है कि मनुष्य हमेशा ही क्रूर होता है क्योंकि ऐसे तमाम लोग हुए जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन सामाजिक कार्यों, मानवता के लिए त्याग दिया चाहे वह नेल्सन मंडेला हों या महात्मा गांधी ।
वर्तमान समय में विश्व में लगभग सभी देश लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपना चुके हैं ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि लोगों के अधिकार और मानवता की बात हो परंतु परमाणु हथियार के युग में राष्ट्र हित और अपना हित अत्यंत ही महत्वपूर्ण हो चुका है। आजकल लोकलुभावन जो कि अंग्रेजी के पॉपुलिस्म शब्द से निकल के आया है लोकतंत्र के लिए एक खतरे का संकेत दे रहा है । चाहे वह अमेरिका का चुनाव हो जिसमें डोनाल्ड ट्रंप ने पहले अमेरिका की नीत अपना कर चुनाव जीता हो या फिर फिलीपींस के रोड्रिगो दुतर्ते हों जिन्होंने ड्रग को चुनाव जीतने में हथियार बनाया। लोकलुभावन के लिए 2014 का चुनाव भला कौन भूल सकता है जिसमें भारतीय जनता पार्टी ने व्यापक स्तर से प्रचार प्रसार कर लोकलुभावन रूपी अवधारणा को जनता के प्रति झोक दिया। यहां सवाल यह उठता है कि लोकलुभावन है क्या? लोकलुभावन को यदि हम परिभाषित करें तो कह सकते हैं कि ऐसे मुद्दे जिससे किसी पार्टी या किसी नेता को अप्रत्यक्ष रुप से लाभ होता है जिसमें वह सहानुभूति, राष्ट्रभक्ति ,धार्मिक या युद्ध जैसे अनेक हथकंडों को अपनाता है। इन सब कारकों के होते हुए जनता सामाजिक ,आर्थिक, राजनीतिक और अपने लोकतांत्रिक अधिकारों को कहीं ना कहीं दोयम दर्जा दे देती है। इससे ना केवल जनता के अधिकारों का हनन होता है बल्कि लोकतंत्र को भी व्यापक तौर से नुकसान होने का भय होता है।
फ्रांस के शासक लुई 14 से लेकर वर्तमान समय तक ऐसे अनेक शासक हुए जिन्होंने लोकलुभावन को अपनी राजनीतिक प्रगति के लिए प्रयोग किया। 1947 में स्वतंत्रता मिलने के पश्चात जब कांग्रेस ने 1967 के चुनाव में अनेक राज्यों में हार का स्वाद चखा तो इसके पीछे अनेक कारण विद्दमान थे। इनमें से एक प्रमुख कारण था प्रभावशाली नेता की कमी। जब इंदिरा गांधी ने कमान संभाली तो वह देश की संपूर्ण व्यवस्था को अपने इर्द गिर्द घुमाने का प्रयास किया। इस समय देश की जनता को जो लोकलुभावन वादे किए गए उनमें से प्रमुख था 1969 का चुनाव जिसमें 'गरीबी हटाओ' का नारा दिया और इसके पश्चात जब 1971 का युद्ध पाकिस्तान से भारत ने जीता तो उसने इंदिरा गांधी की प्रतिष्ठा को एक मसीहा के तौर पर भारत वासियों के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। आंतरिक समस्याओं से निपटने के लिए देश के कई राज्यों में जातीय,क्षेत्रीय और भाषाई आधार पर अनेक नेता उभरकर सामने आए इनमें से जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर प्रमुख थे। जे पी आंदोलन ने कहीं ना कहीं एक प्रमुख भूमिका अदा की देश में राजनैतिक बदलाव लाने की। इन आंदोलनों से इंदिरा अपनी राजनीतिक छवि को जनता के प्रति किसी भी प्रकार से गिराना नहीं चाहती थीं और उसका परिणाम 1975 से 1977 तक आपातकाल के रूप में देश की जनता ने भोगा । हालांकि आपातकाल को देखते हुए इंदिरा सरकार ने आगे चलकर कई सारे आर्थिक और सामाजिक योजनाएं चलाई जिनमें से 20 बिंदु प्रोग्राम और रजवाड़ों के प्रति जो कस्टम ड्यूटी पहले नहीं पड़ती थी देने का नया नियम ने जनता के प्रति उनकी राजनीतिक छवि को पुनः सकारात्मक किया।
2014 के चुनाव के पश्चात जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के तौर पर चुनकर आए तो कई सारे लेखकों और राजनीतिक विश्लेषकों ने इनकी तुलना इंदिरा जी से करने लगे। तीन साल के शासनकाल के दौरान लिए गए कई सारे निर्णयों ने तानाशाही रवैया दिखाने का प्रयास किया। भारतीय जनता पार्टी और कहीं ना कहीं देश की संपूर्ण जनता नरेंद्र मोदी जी के इर्द गिर्द घूमने का प्रयास कर रही है इससे ना केवल एक व्यक्ति विशेष को केंद्र में रखने का बल मिला है बल्कि इससे लोकतंत्र की मूल भावना का कहीं ना कहीं हनन भी हो रहा है। 2014 के चुनाव के पश्चात चाहे वह राष्ट्रभक्ति का मुद्दा हो ,गौ मांस को लेकर एक विचार बनाने का प्रयास किया जा रहा हो या फिर भ्रष्टाचार को ही क्यों ना एक मुख्य मुद्दा बनाया जा रहा हो। यह सभी देश की मुख्य समस्याओं को नजरअंदाज करते हुए देश की संपूर्ण जनता को लोकलुभावन की ओर आकर्षित कर रहे हैं जिससे विकल्प तो बंद होते ही हैं साथ ही साथ अधिकार भी बंद होने का खतरा रहता है। लोकतंत्र की मूल भावना ही अधिकार पर टिकी है चाहे वह व्यक्तिगत अधिकार हो या सामाजिक अधिकार फिर इस प्रकार से किए जा रहे लोकलुभावन वादे कैसे जनता के हित में हो सकते हैं और देशहित की तो बात ही नहीं की जा सकती। अतः लोकतंत्र की गरिमा को बनाए रखने के लिए और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है कि देश को इन लोकलुभावन मुद्दों से बाहर कर देश का सर्वांगीण विकास किया जाए
वर्तमान समय में विश्व में लगभग सभी देश लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपना चुके हैं ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि लोगों के अधिकार और मानवता की बात हो परंतु परमाणु हथियार के युग में राष्ट्र हित और अपना हित अत्यंत ही महत्वपूर्ण हो चुका है। आजकल लोकलुभावन जो कि अंग्रेजी के पॉपुलिस्म शब्द से निकल के आया है लोकतंत्र के लिए एक खतरे का संकेत दे रहा है । चाहे वह अमेरिका का चुनाव हो जिसमें डोनाल्ड ट्रंप ने पहले अमेरिका की नीत अपना कर चुनाव जीता हो या फिर फिलीपींस के रोड्रिगो दुतर्ते हों जिन्होंने ड्रग को चुनाव जीतने में हथियार बनाया। लोकलुभावन के लिए 2014 का चुनाव भला कौन भूल सकता है जिसमें भारतीय जनता पार्टी ने व्यापक स्तर से प्रचार प्रसार कर लोकलुभावन रूपी अवधारणा को जनता के प्रति झोक दिया। यहां सवाल यह उठता है कि लोकलुभावन है क्या? लोकलुभावन को यदि हम परिभाषित करें तो कह सकते हैं कि ऐसे मुद्दे जिससे किसी पार्टी या किसी नेता को अप्रत्यक्ष रुप से लाभ होता है जिसमें वह सहानुभूति, राष्ट्रभक्ति ,धार्मिक या युद्ध जैसे अनेक हथकंडों को अपनाता है। इन सब कारकों के होते हुए जनता सामाजिक ,आर्थिक, राजनीतिक और अपने लोकतांत्रिक अधिकारों को कहीं ना कहीं दोयम दर्जा दे देती है। इससे ना केवल जनता के अधिकारों का हनन होता है बल्कि लोकतंत्र को भी व्यापक तौर से नुकसान होने का भय होता है।
फ्रांस के शासक लुई 14 से लेकर वर्तमान समय तक ऐसे अनेक शासक हुए जिन्होंने लोकलुभावन को अपनी राजनीतिक प्रगति के लिए प्रयोग किया। 1947 में स्वतंत्रता मिलने के पश्चात जब कांग्रेस ने 1967 के चुनाव में अनेक राज्यों में हार का स्वाद चखा तो इसके पीछे अनेक कारण विद्दमान थे। इनमें से एक प्रमुख कारण था प्रभावशाली नेता की कमी। जब इंदिरा गांधी ने कमान संभाली तो वह देश की संपूर्ण व्यवस्था को अपने इर्द गिर्द घुमाने का प्रयास किया। इस समय देश की जनता को जो लोकलुभावन वादे किए गए उनमें से प्रमुख था 1969 का चुनाव जिसमें 'गरीबी हटाओ' का नारा दिया और इसके पश्चात जब 1971 का युद्ध पाकिस्तान से भारत ने जीता तो उसने इंदिरा गांधी की प्रतिष्ठा को एक मसीहा के तौर पर भारत वासियों के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। आंतरिक समस्याओं से निपटने के लिए देश के कई राज्यों में जातीय,क्षेत्रीय और भाषाई आधार पर अनेक नेता उभरकर सामने आए इनमें से जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर प्रमुख थे। जे पी आंदोलन ने कहीं ना कहीं एक प्रमुख भूमिका अदा की देश में राजनैतिक बदलाव लाने की। इन आंदोलनों से इंदिरा अपनी राजनीतिक छवि को जनता के प्रति किसी भी प्रकार से गिराना नहीं चाहती थीं और उसका परिणाम 1975 से 1977 तक आपातकाल के रूप में देश की जनता ने भोगा । हालांकि आपातकाल को देखते हुए इंदिरा सरकार ने आगे चलकर कई सारे आर्थिक और सामाजिक योजनाएं चलाई जिनमें से 20 बिंदु प्रोग्राम और रजवाड़ों के प्रति जो कस्टम ड्यूटी पहले नहीं पड़ती थी देने का नया नियम ने जनता के प्रति उनकी राजनीतिक छवि को पुनः सकारात्मक किया।
2014 के चुनाव के पश्चात जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के तौर पर चुनकर आए तो कई सारे लेखकों और राजनीतिक विश्लेषकों ने इनकी तुलना इंदिरा जी से करने लगे। तीन साल के शासनकाल के दौरान लिए गए कई सारे निर्णयों ने तानाशाही रवैया दिखाने का प्रयास किया। भारतीय जनता पार्टी और कहीं ना कहीं देश की संपूर्ण जनता नरेंद्र मोदी जी के इर्द गिर्द घूमने का प्रयास कर रही है इससे ना केवल एक व्यक्ति विशेष को केंद्र में रखने का बल मिला है बल्कि इससे लोकतंत्र की मूल भावना का कहीं ना कहीं हनन भी हो रहा है। 2014 के चुनाव के पश्चात चाहे वह राष्ट्रभक्ति का मुद्दा हो ,गौ मांस को लेकर एक विचार बनाने का प्रयास किया जा रहा हो या फिर भ्रष्टाचार को ही क्यों ना एक मुख्य मुद्दा बनाया जा रहा हो। यह सभी देश की मुख्य समस्याओं को नजरअंदाज करते हुए देश की संपूर्ण जनता को लोकलुभावन की ओर आकर्षित कर रहे हैं जिससे विकल्प तो बंद होते ही हैं साथ ही साथ अधिकार भी बंद होने का खतरा रहता है। लोकतंत्र की मूल भावना ही अधिकार पर टिकी है चाहे वह व्यक्तिगत अधिकार हो या सामाजिक अधिकार फिर इस प्रकार से किए जा रहे लोकलुभावन वादे कैसे जनता के हित में हो सकते हैं और देशहित की तो बात ही नहीं की जा सकती। अतः लोकतंत्र की गरिमा को बनाए रखने के लिए और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है कि देश को इन लोकलुभावन मुद्दों से बाहर कर देश का सर्वांगीण विकास किया जाए
सलमान अली
Very nice , good...
ReplyDeleteभारतीय मानस लोकतंत्र को समझने के लिए अभी बालावस्था में है। हजारों वर्ष राजाओं, सुल्तानों, बादशाहों के राज में इस जनमानस ने व्यक्तिकेन्द्रित सत्ता देखी है । अतः व्यक्ति से ऊपर उठकर दलगत राजनीति इस लोकतंत्र में तभी आएगी जब जनमानस युवा होगा।इसमे अभी समय है।
ReplyDeleteआदरणीय विक्रम आचार्य जी भारत को आप नए अर्थ में समेटते हुए बाल्यावस्था का तबका दे सकते हैं परंतु यदि हम इसके जड़ में जाकर देखें तो यह दुनिया का सबसे पुराना आधार दिखाता हुआ प्रतीत होता है जो कि लोकतंत्र को अपने में समेटे था।
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